Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ श्रीमती मनोरमादेवी [57 कुछ समय सुखसे रहनेके पश्चात् एक दिन रात्रिके समय जब सुखानन्दकुमार अपनी कोमल शय्यापर विश्राम ले रहे थे कि अचानक नींद खुल गई और सोचने लगे कि मैं बिना उद्योगके पिताकी उत्पन्न की हुई सम्पत्तिसे आनंद करता हूँ। मेरी अवस्था भी अब उद्योग करनेके योग्य हो गई है, इसलिये अब मुझे व्यापारमें प्रवृत्त होकर सम्पत्ति पेदा करनी चाहिये। उन्होंने अपना यह विचार तत्काल अपनी प्यारी अर्धांगिनीकों भी निद्रासे सचेत कर सुना दिया। मनोरमाने अपने स्वामीके इन उत्कृष्ट विचारोंकी प्रशंसा की तथा घर पर ही रहकर व्यापार करनेका परामर्श दिया। परंतु सुखानंदकुमारने अनेक कारणोंसे घर पर ही रहकर व्यापार पसंद न कर विदेशमें अधिक सफलता समझ विदेश ही जानेका निश्चय किया। मनोरमाको यद्यपि पतिसे विछोह होनेका दुःख अधिक हुआ तब भी उसने कुमारको यथायोग्य वैदेशिक शिक्षायें देकर खुशीसे विदेश जाकर व्यापारमें सफलता प्राप्त करनेकी राय दी। प्रातःकाल होते होते कुमारने यह अपना विचार अपने पूज्य पिताजीसे निवेदन किया और जानेकी आज्ञा मांगी। पिताने भी कई तरहकी युक्तियां समझाकर उन्हें व्यापारके लिये जानेकी आज्ञा दी और वे स्थल जल मार्गसे द्वीपांतरों में व्यापारके निमित्त प्रस्थान कर गये। कुमारी मनोरमादेवी अपने स्वामी सुखानन्दको किसी तरहको तकलीफोका सामना करना न पडे तथा व्यापारमें अधिक सफलता हो इसलिये परब्रह्म परमात्माका ध्यान किया करती थी। एक दिन जबकि कुमारी प्रातःकालकी क्रियासे निवृत्त हो स्नान कर अपने प्रासादकी छतपर खड़ी अपने केशोंको खोलकर सुखा रही थी कि वहांका राजकुमार घोडे पर चढ़ा हुआ निकला।

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82