Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 70
________________ श्रीमती मनोरमादेवी [61 नगरीमें पहुंचे। जब वहां भी निराश होना पड़ा तब फिर जंगलर भटकते फिरते कई महीनोंका वियोगरूपी दुःख तथा वनवासके क्लेश सहते हुए काशीमें पहुंचे और अपनी सहधर्मिणीसे मिलकर वहां कुछ दिन सुखसे रहे। __जब वैजयन्ती नगरके राजाको सुन्दरी मनोरमाके कलंकित होकर अन्यत्र जंगलमें भेजे जानेका तथा कुमार सुखानन्दको उसकी खोजमें जंगल जंगल भटकते फिरनेका हाल ज्ञात हुआ तब उन्होंने तुरंत सेठ महीपालको बुलाकर उन दोनोंको खोजनेके लिए अनुरोध किया। तदनुसार शीघ्र सेठजीने चारों तरफ अपने अनुचर भेजे तथा आप स्वयं भी पुत्र व पुत्र-वधूकी खोजमें निकले। खोजते खोजते ये भी काशीमें पहुंचे, पुत्र व पुत्रवधूको देख आनन्दसागरमें मग्न हो गये और उनको लेकर शीघ्र वैजयन्ती नगरीको चल दिये। मनोरमासुन्दरीको अपने कलंकका बहुत ही दुःख था, इसलिए उसने इसके इन्साफ वगैर नगरीमें प्रवेश करनेसे इन्कार किया। यह इन्साफ राजाने खुद अपने हाथमें लिया और तिथि दूसरे दिनकी नियत कर दी। पुण्यका प्रताप बडा प्रबल होता है। इस बीचमें रात्रिको जो लीला हुई वह अलौकिक है। मानो देवशक्ति पतिव्रता स्त्रियोंका न्याय राजासे होना अयोग्य समझ खुद न्याय करनेके लिए इस मृत्युलोकमें अवतीर्ण हुई। रात्रिको नगरके चारों ओरकी चहार दीवारोंके सब बड़े बड़े फाटक बन्द हो गए और राजाको स्वप्न हुआ कि "नगरके फाटक बन्द कर दिये गये हैं। पतिव्रता स्त्रीके चरणस्पर्श मात्रसे ही वे खुल सकेंगे।" प्रातःकाल ही राजाको नगरके फाटक बन्द होनेका समाचार मिला। राजाको शीघ्र ही अपने स्वप्नकी बात

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