Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 78
________________ श्रीमती रानी रयनमंजूषा [69 भाटोकबदा किया और भाट सिद्ध करनाने राजसभा धवलसेठका जहाज भी समुद्रको लांघता हुआ इसी कुंकुमद्वीपके किनारे आया। सेठने राजाकी भेटके लिये अनुपम वस्तुओंको लेकर राजसभाकी ओर गमन किया। जब श्रीपालको राजसभामें उच्चासनपर प्रतिष्ठित हुए देखा तो सेठके होश उड़ गये। वह शीघ्र राजासे भेटकर विदा होने लगा। विचारा कि श्रीपाल मुझसे अवश्य बदला लेगा। इनका राजाके यहां मान है, इसलिए चाहे जो कुछ कर सकता है। अतः इसकी प्रतिष्ठाको नष्ट करना चाहिए। सोच समझकर उसने भाटोंको बुलवाया, कार्यसिद्धिपर उन्हें बहुतसे रुपये देनेका वादा कर बिदा किया और राजसभामें जाकर श्रीपालको अपना संबंधी पुकारकर उसे भाट सिद्ध करनेके लिए कहा। भाट लोगोंकी बुद्धि चंचल होती ही है, उन्होंने राजसभामें जाकर किसीने श्रीपालको अपना पुत्र, किसीने भतीजा, किसीने भाई आदि संबंध शब्दोंसे सम्बोधन किया। राजाको शीघ्र भ्रम हो गया कि श्रीपाल जातिका भाट है। अपनी जातिका लोप कर इसने मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण किया है। राजा बहुत रुष्ट हो गया और उसने श्रीपालको शूलीदण्डकी आज्ञा दी। श्रीपाल महायोद्धा थे, वे इस नाटकका अंतिम दृश्य देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इस विषयमें कुछ नहीं कहा, परंतु जब उनकी प्यारी पत्नी गुणमाला इससे भयभीत हो उनके चरणोंपर गिरकर उनसे जाति आदिके विषयमें प्रश्न कर उत्तरकी इच्छा करने लगी तो उन्होंने समझकर कहा कि समुद्रके किनारे पर एक व्यापारीका जहाज ठहरा हुआ है, उसमें रयनमंजूषा नामक एक राजकुमारी होगी, उससे मेरा सब हाल पूछना। वह विस्तार सहित तुम्हारी सब शंकाओंका समाधान करेगी।

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