Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 80
________________ श्रीमती रानी रयनमंजूषा [71 ही अपने समयको स्वाध्यायादिमें बिताने लगी। क्रमशः एकादश प्रतिमाओंको धारण कर कर्मोकी निर्जरा की और अंतमें समाधिमरण द्वारा आत्मोत्सर्ग किया और स्वर्गलक्ष्मीको प्राप्त किया। हमारे वाचकोंने इस चरित्रको पढ़कर संसारकी प्रगतिका उदाहरण भलीभांति जाना होगा कि सज्जन कैसी ही दशामें क्यों न हो एवं दुष्ट लोग सजनसे चरमसीमाकी दुष्टता भी करें पर वे अपनी सजनताका परित्याग कभी नहीं करते। तथा यह बात भी अवश्य है कि सच्चे धर्मात्मा क्षुद्रोकी क्षुद्रतासे दुःखित कभी नहीं होते। ___ यही कारण है कि दुष्टमति धवलसेठके द्वारा कईबार घोर उपद्रव करने पर भी उसके दुष्ट कृत्योंका उसे बदला देनेके लिये नीचोंकी तरह श्रीपालके नीच चेष्टा कभी नहीं की। श्रीपालको मारनेकी चेष्टा की गई और उनका निरादर करनेके लिये भी धवलसेठने नीच उपायोंका अवलम्बन किया, पर श्रीपालने जिनेन्द्र भगवानके शासनमें अटल और अचल श्रद्धा होनेके कारण दुःखके अवसरों पर भी असाधारण सुखोंको भोगा। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात इस चरित्र में रयनमंजूषाकी पतिभक्ति है। घोर आपत्ति आनेपर और धवलसेठकी भयावनी विभीषिकाओंसे भी पतिव्रता रयनमंजूषाका चित्त पति भक्तिसे बिचलित नहीं हुआ किंतु पतिप्रेममें ही लगा रहा। क्या विचारशील पाठिका इस ओर ध्यान देंगी? मनुष्य समाजकी उन्नतिके लिये इस बातकी आवश्यकता है और अत्यंत

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