Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 58
________________ रानी अंजनासुन्दरी [49 वे युद्धमें चले गये हैं, नहीं कहा जा सकता है कि इस पर्यायमें फिर स्वामीके दर्शन हो सकेंगे या नहीं। इत्यादि विचारों को करती हुई भारतके गौरवको प्रदीप्त करनेवाली एक परम सुन्दरी सती अपने भाग्यको दोष देती हुई विलाप कर रही है। सिवाय वीतराग चिदानन्द परमात्माके ध्यानके उसको इस असह्य दुःखसे निवृत्त करनेवाला कोई दिखाई नहीं देता था। महाराज प्रह्लादके सुपुत्र वायुकुमारकी सेना दिनमें चलते चलते सन्ध्याको एक सरोवरके निकट डेरे डालकर विश्राम करनेके लिये ठहर गई। कुमार भी अपने डेरेमें विश्राम करनेके लिये ठहरे। कुछ जलपान करके शामके अपूर्व समयमें सरोवर और प्रकृतिका सौंदर्य देखनेके लिए कुमार अपने मित्र सहित टहलनेके लिए खेमेसे बाहर हुए। खेमेसे बाहर निकलते ही प्रकृतिने उन्हें उपदेश दिया जो हजारों उपदेशकोसे भी नहीं दिया जा सकता जिसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती, जिस ज्ञानके विषयमें इनके हृदयमें बिलकुल अन्धकार था एकाएक ज्ञानका सूर्य दीप्त हो गया। इन्होंने देखा कि एक चकवी रात्रि आनेके कारणसे अपने पतिसे विछोह होनेका समय देख अत्यंत दुःखके साथ कोलाहल मचा रही है। जब इनको ज्ञात हुआ कि जिस तिर्यंच पक्षीको मनुष्यकी अपेक्षा लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है, अपने प्रियका वियोग होनेसे इतना कष्ट होता है जिसका अन्त नहीं है, तो फिर मेरी प्यारी पत्नी अञ्जनासुन्दरीको, जिसको मैंने 22 साल हो चुके बिल्कुल त्याग दिया है, क्या दशा होगी? उसके दुःखोंका वर्णन करनेका क्या इस भूमण्डलमें कोई समर्थ है?

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