Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 60
________________ रानी अंजनासुन्दरी [51 प्राप्त कर अपने देशकी ओर रवाना हुए। समय बहुत हो गया था। यह अञ्जनासुन्दरीको वास्तवमें गर्भ रह गया और दिन दिन रूपकी वृद्धि होने लगी। यह समाचार सारे रनवासमें फैल गया। राजमहिषियोंको जब यह समाचार मिला तो उन्होंने अपने कुलमें कलंक समझ बहुत दुःख प्रकट किया तथा अञ्जनासुन्दरी को अपने पिता माताके यहां पहुंचानेका विचार किया। __ अञ्जनासुन्दरीने बहुत कुछ कहा परंतु उसको राजमहिषी द्वारा यही उत्तर मिला कि मेरे पुत्रने तो तूझे 22 वर्षसे त्याग दिया है और वह युद्ध में गया है फिर तेरे पास क्यों आवेगा? अंतमें निराश होकर सुन्दरीको अपने मातापिताके यहां जाना पडा। पिता माताने भी इसको कलङ्किनी समझ अपने महलोंमें आश्रय नहीं दिया। इस तरह अञ्जनासुन्दरी सती अपनी एक प्यारी सखीके साथ अपने पूर्वकृत कर्मोके प्रतापसे तरह तरहके दुःख भोगती हुई जंगलोंमें फिरती फिरती एक गुफामें रहने लगी। वहीं पर उसने परम प्रतापी जगद्विख्यात पुत्र हनुमानको प्रसव किया। अञ्जनासुन्दरी अपनी सखी सहित अनेक दुःखोंका सामना करती हुई पुत्रको पालने लगी। एक दिन सुन्दरी अपने स्वामीको याद कर जब फूट फूटकर रो रही थी तब हनूरुह द्वीपका राजा प्रतिसूर्य जो वायुयान द्वारा उस जंगलमें कर्णभेदी रोनेका शब्द सुन नीचे उतरा। गुफामें जाकर वृत्तांत सुना। ज्ञात होनेपर उसने अपनी भांजीको हृदयसे लगा लिया और हर तरहसे शांति देकर अपने साथ वायुयानमें बिठाकर अपने द्वीपमें ले गया। वहां पुत्रके जन्मोत्सवका आनन्द मनाया तथा अञ्जनासुन्दरीको अच्छी तरह रखा।

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