Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 43
________________ 34] ऐतिहासिक स्त्रियाँ ही फल समझकर राजाको संतुष्ट किया और आनंदसे पतिके साथ गई। सुन्दरी स्वामीके शिबिरमें आकर अपनेको कृतकृत्य समझने लगी। उसी दिनसे उसने स्वामीके रोगकी निवृत्तिके लिये उपाय सोचना प्रारम्भ कर दिया तथा उनकी हर तरहसे सेवा सुश्रुषा करने लगी। यद्यपि राजा श्रीपालने कुमारी मैनासुन्दरीको उसके रूप, यौवन, सुकुमारतापर ध्यान देकर तथा उस राजप्रासादोंमें सुखसे रहनेवाली कोमलांगीको इस शिबिरमें रहनेके क्लेशों पर ध्यान देकर उसे बहूत समझाया कि जबतक हमारा यह रोग दूर न हो जावे तबतक तुम अपने मातापिताके पास सुखसे रहो, परंतु सती साध्वी सुन्दरीने सब सुखोंसे श्रेष्ठ पति-सेवा ही समझकर स्वामीके चरणोंकी सेवामें ही रहना श्रेयस्कर समझा। ___ एक दिन राजकुमारी मैनासुन्दरी उज्जैनके जिन मंदिरोंमें दर्शन करनेके लिए गई। दर्शनोंके पश्चात् अपने पूज्य गुरुजीके भी दर्शन किये और समय पाकर अपने स्वामीके रोगका सम्पूर्ण वृतान्त सुनाकर असकी निवृत्तिका कारण पूछा। गुरुजी बड़े प्रतिभाशाली पंडित थे। इसलिये उन्होंने कुमारीको संतोषित करके उसके स्वामीके शीघ्र आरोग्य होनेका हाल ज्योतिषसे देखकर बतलाया। तथा कुमारीको अष्टाह्निका व्रतके अनुष्ठान करनेका उपदेश देकर उसके पालनेकी विधि बताकर विदा किया। अष्टाह्निका व्रतका समय आनेपर कुमारीने सविधि व्रतानुसार कार्य करना आरंभ किया। प्रतिदिन वह जिन मंदिरमें जाकर परमात्मा वीतराग भगवानका पूजन स्तवन करने लगी। अभिषेकका गन्धोदक लेकर अपने पतिके शरीरमें लेपन करने तथा अन्य रोगियोंके उपर भी छिड़कने लगी। रोग धीरे धीरे

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