Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 24
________________ श्रीमती सीताजी [15 किया और लंकाका राज्य विभीषणको दिया और अपनी प्राणप्रिया पतिव्रता सीताको लेकर अयोध्या आये। यहां आकर इनका राज्य भिषेक हुआ। राजसिंहासन पर विराजमान हुये। बहूत दिनोंसे बिछुडे हुये अपने परिवारजनोंको सुखमय किया। प्रजापर पुत्रकी तरह वात्सल्य भावसे शासन करने लगे। इसी प्रकार, सीता, लक्ष्मण, भरत इत्यादिकोंके साथ सुखसे दिन बिताने लगे। अभी महाराज रामचंद्रको गद्दीपर बैठे अधिक दिन नहीं हुये थे कि अकस्मात् एक घटना आ उपस्थित हुई। नगरके कुछ लोग, समुदाय होकर राजभवनमें आये और आकर बैठ गये। आनेका कारण पूछने पर उन आगतजनोंके धृष्ट नेता 'विजय' नामा पुरोहितने इन कर्णभेदी शब्दोंका उच्चारण किया"महाराज! सीताजी इतने दिनोंतक रावणके घरपर रही और उनको बिना सोचे-विचारे आपने अपने गृहमें प्रविष्ट कर लिया! हे प्रभो! आप प्रजाके शासक हैं, आपके आधीन बहुत जनसमुदाय है, राजाका प्रजाके ऊपर अधिक प्रभाव पड़ता हैं। जैसा राजाका व्यवहार होता है वैसा ही व्यवहार उस राजाकी प्रजाका हो जाता है। आपके इस व्यवहारको देखकर प्रजा उच्छखंल और निरर्गल हो गई हैं, इत्यादि।" यह बात सुनकर रामको अतिशय खेद हुआ। रामचंद्रको अपनी प्रियाके सतीत्वमें लेशमात्र भी शंका नही थी। तो भी रामचंद्र बहूसंख्यक जनसमुदायके शासक थे, सामाजिक नियमोंके पूर्णमर्मी थे पूर्वापर विचारमें अति चतुर थे। वे जानते थे कि इनका कहना ठीक हैं। यदि आज हम ही ऐसा करेंगे तो हमारे आधीन प्रजा भी समाजके नियम परिपालनमें स्वेच्छाचार प्रवृत्ति करेगी। इत्यादि विवेचन कर दूरदर्शी, स्वार्थहीन

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