Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 23
________________ 14] ऐतिहासिक स्त्रियाँ और संकुचित जीवनलताका फिरसे विकास हुआ। इधर रामचंद्रके शुभोदयसे बहूतसे सहायक आन मिले थे। इसलिये बहूतसे वीरों को लेकर उन्होंने लंकापर चढाई की। लंकामें लाकर रामचंद्रने रावणको कहला भेजा कि तुम यदि सीताको अपनी इच्छासे देना चाहते हो तो दे दो अन्यथा हम बलात सीताको ले जायेंगे और तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। इस प्रकार उदारचेता रामचंद्रजीने अपनी गंभीरता और उदारताका परिचय दिया। कामान्ध रावणको एक भी नही सुहाई। उसके विचार टससे मस भी नही हुआ! सो ठीक हैक्योंकि "विनाशकाले विपरीत बुद्धिः" इस नीतिके अनुसार विनाशके समय लोगोंकी उल्टी मति हो ही जाती हैं। बस क्या था, दोनों पक्षके योद्धागण रणाङ्गणमें उतर पड़े। महा घोर युद्ध हुआ। क्रमशः रावणकी पराजय होती गई। परमरणासन्न रावणके विचारोंमें अंशमात्र भी परिवर्तन नही हुआ। बराबर युद्ध करता ही गया। रावण विषयलम्पटी था, कामके वशीभूत था, कर्तव्याकर्तव्यके ज्ञानसे शून्य था, महा अविनयी था और अविवेकी था, इसलिये उसका अध:पतन हुआ। लक्ष्मणने उसे युद्ध में मारकर परलोकका मार्ग बताया। रावणकी कीर्ति सदाके लिये लोप हो गई और उसके मस्तकपर ऐसा कलंकका टीका लगा कि आज हजारों वर्षो बीत जानेपर भी उसका मार्जन नही हुआ। यही कारण हैं कि आज स्मरण आनेसे उसके ऊपर घृणा आती हैं और ऐतिहासिक दृष्टिसे निरादरका पात्र गिना जाता है। अस्तु, जो होना था सो हो गया, जो भवितव्यता होती है, वह होकर ही रहती है उसे कोई नहीं मेट सकता। रामचंद्रने लंकाका विजय

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