Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 21
________________ 12] ऐतिहासिक स्त्रियाँ विचारको नहीं बदला और अंतमें सीता अपने पतिहीके साथ वन जानेको उद्यत हो गई। इसी प्रकार लक्ष्मण भी अपने बड़े भाईका अनुगमन करने को उद्यमी हो गये। जब रामचंद्रजीने कोई उपाय नही देखा, तब सीता और लक्ष्मणको साथ ले वनका मार्ग लिया। हां! कैसा विलक्षण प्रतिप्रेम है! और कैसी गाढ़ भक्ति है, जिससे प्रेरित आज सीता पैदल वनको जा रही है। जिस सीताने कभी पृथ्वीका स्पर्श नहीं किया था, जिसने कभी स्वप्नमें भी दुःख नहीं भोगा था, जिसको यह भी ज्ञान नही था कि, वन क्या वस्तु होती है, वही सीता पतिप्रेममें लीन हो इस वनसे उस वनमें और उससे इसमें भ्रमण करती फिरती है। सीताका अब उन ऊंचे ऊंचे महलों पर पुष्प शय्याका सुख नहीं है। सीताको नाना प्रकारके स्वादु सुखद व्यंजन आभूषण नहीं हैं। तात्पर्य कहनेका यह है कि सीताके पास सुखकी कोई सामग्री नही है तो भी सीता सुखी है। उसका सुख अपार है। वह अपने सुखके सामने, स्वर्गके सुखको तुच्छ समझती है। तीन लोककी विभूति भी सीताको सुखे तृणके समान है। केवल पतिके चरणकमलोंके दर्शन मात्रसे ही सीता अपनेको परम सुखी जानती है। पतिको सेवा करके ही अपनेको कृतकृत्य मानती है। यही कारण है कि सीता उस भीषण वनको सुन्दर महल समझती है और मार्गमें पड़े हुऐ कंदकोंको पुष्प-शय्या जानती हैं! इसी प्रकार नाना दुःखोंको और अनेक कष्टोंको सहन करके सीता और रामचंद्रको बहुत दिन बीत गये। जब रामचंद्रने दण्डक वनमें प्रवेश किया उसी समय दुराचारी रावणने अपने छलसे सीताको हरण कर लिया। रामचंद्र

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