________________ श्रीमती सीताजी [21 तब देवने अपनी विक्रियासे उस अग्निकुण्डको एक मनोहर तालाब बनाया। तालाबके मध्यभागमें सहस्त्र दलका एक कमल बनाया और कमलकी मध्य कणिकापर एक सिंहासन निर्माण कर उस पर सीताको बैठाया और सिंहासनके ऊपर मणिखचित मण्डप बनाया। ऊपरसे देवोने प्रसन्न होकर आकाश मार्गसे पंचाश्चर्योकी वर्षा की और साथ२ उस तालाबका प्रवाह इतना बढ़ा कि दर्शकगणोंको प्राणरक्षा करना असम्भव मालुम होने लगा। धीरे धीरे पानी बढ़ा और बढ़कर दर्शकोंके गलों तक आ गया। घोर आक्रन्दन और आर्तनिदानसे चारों दिशायें गूज उठीं, दशों दिशायें जलसे प्लावित हो गई। और त्राहि! त्राहि! का कर्णवेधी स्वर सब जगह होने लगा। जब इस बातका सर्वसाधारणको ज्ञान हो गया कि यह सब माहात्म्य पतिव्रता सीताके निर्दोष शीलव्रतका है तब देवने अपनी मायाका संवरण किया। दर्शकोंको शांति हुई और सीताकी निर्दोषताकी प्रतीति हुई। तथा रामचंद्रके शुद्ध और निर्दोष शासनका परिचय मिला।। रामचंद्र भी अपनी पत्नीकी सत्यता और पवित्रता पर मुग्ध हो गये तथा अपनी पत्नीको देवकृत अतिशय श्रद्धासे सम्मानित देखकर फूले अंग न समाये और आनंदके ऐसे आवेशमें आये कि सीताके पास आकर अपने अपराधोंकी क्षमा मांगने लगे और कहा "हे प्रिये! मुझे क्षमा करो।" केवल जनापवादसे ही मैंने तुमको छोड़ा, अब आओ, एकबार फिर प्रेमपासमें बन्धे और संसारके नाना सुखका अनुभव करें। भोगोसे विरक्त सीताने उत्तर दिया-"आपको क्षमा ही है" पर जिन कर्मोंने ऐसा नाच