Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 32
________________ श्रीमती सीताजी [23 लिये मुक्तहारको दग्ध' किया, क्षणिक सुखके लिये नित्य सुखमें अन्तराय किया। इसलिये अब जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आऊंगी। किन्तु जैनेन्द्र दीक्षा धारण कर कर्म समूहका नाश करूंगी। इतना कहकर सीताने अपने केश उत्पाटन कर रामचंद्रजीके सामने फेंक दिये और देवपरिवारके साथ श्री जिनेन्द्र भगवानके समवशरणमें जाकर श्री जिनेन्द्र भगवानकी वन्दना कर 'पृथ्वीमति' नामकी आर्जिकाके समीप दीक्षा ले ली और बासठ वर्षतक कठिन तपस्या कर तेतीस दिनका सन्यास धारण करके शरीरको छोड़ अच्युत नामा सोलहवें स्वर्गरें जा स्वयंप्रभा नाम देव हुई। पाठक और पाठिकागण! आपने भलीभांति जान लिया होगा कि सीताकी सम्पूर्ण जीवनलीला दुःखमय बीती है। सीता पर अनेक दुर्घटनायें हुई है उन्हें सीताने निःसहाय होकर भी कैसी सरलतासे सबको सहन किया। सीता अबला स्त्री थी, असहाय नारी थी, पूर्व में उपार्जन किये हुए कर्मसमूहके वशीभूत थी। अतएव एकके उपर एक आपत्ति आती रही पर सीता हाथ पर हाथ रखकर बैठ नहीं रही। उसने आत्मावलम्बन लेकर असाधारण पौरुषका परिचय दिया। हम देखते हैं कि यदि हम पर थोड़ी भी आपत्ति आ जाती तो हम मृततुल्य हो जाते हैं। हमे कर्तव्य अकर्तव्यका ज्ञान नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है कि हममें वह स्वात्मावलम्बन नहीं है। हम सर्वदा दूसरोंकी बाट देखा करते है। हमारे पास वह सीताकासा शील नहीं है। हम सत्य बोलना नहीं जानते, हम इन्द्रियोंके वशमें पड़े हुए है। हमें विषय कषायसे इतनी प्रीति है कि हमे धर्मके कार्य नहीं भाते। हमारी इन्द्रियां इतनी चंचल

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