Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 35
________________ 26] ऐतिहासिक स्त्रियाँ थी, इसी कारण राजा श्रेणिकके कई उपदेश व प्रयत्न निष्फल हुए और अंतमें राजाको ही इस धर्मयुद्ध में पराजित होकर जैन धर्मको खुशीके साथ धारण करना पड़ा, जिसका वर्णन इस प्रकार है__एक समय राजा और रानी सुख-आसन पर बैठ परस्पर प्रेमालाप कर रहे थे कि बौद्ध धर्मावलम्बी राजगुरु जिनका नाम 'जठराग्नि' था पधारे। महात्मा जठराग्निको भलीभांति ज्ञात था कि महारानी जैनधर्मावलम्बी हैं। इसीलिये अवसर पाकर कटाक्षपूर्णव्यङ्ग शब्दोंमें कहा कि-"क्षपणक (जैनगुरु) मरकर क्षपणक (भिक्षुक) होते हैं।" महारानीको इस असत्य वाक्यसे बहुत संताप हुआ। होना ही चाहिये, क्योंकि एक सत्यधर्मको अनुयायिनी अपने धर्मकी इस प्रकार निन्दा नहीं सह सकती, परंतु उस समय महारानीने शांति धारणकर विशेष कुछ न कह राजगुरुसे पूछा "महाराज! आपने कैसे जाना?" उत्तर मिला कि "मुझे विष्णु भगवानने ऐसी ही विद्या दी है।" महारानीने समझ लिया कि महाराज गप्पाष्टक झाड़ रहे हैं। इनकी परीक्षा करनी चाहिये ताकि सन्देहकी निवृत्ति हो। उन्होंने प्रगट रुपसे कहा कि महाराज! अगर आप ऐसी बुद्धि रखते हैं तो हमारे महलमें भोजनके लिये कर आपका निमंत्रण है। महाराजने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यथासमय अपने कुछ चुने हुए शिष्योंको लेकर नियत स्थानपर आ पहुंचे और जुते उतार बैठक खानेमें बैठे। महारानी चेलनाकी आज्ञानुसार एक दासीने कुछ जूते उठाकर खाद्य पदार्थों में इस तरह मिलाये कि जिससे बिल्कुल मालूम न पड़े।

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