Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 25
________________ ऐतिहासिक स्त्रियाँ महात्मा रामचंद्रने प्राणप्रिया सीताको परित्याग करनेका विचार कर लिया। सीताको गर्भ था। इसलिए उस पुण्यशीलाको निर्वाणभूमिके दर्शनोंकी इच्छा हुई और पतिसे निवेदन किया। रामचंद्रजीको अच्छा अवसर मिल गया। अपने कृतान्तवक्र नामक सेनापतिको बुलाकर कहा कि सीताको निर्वाणभूमिके दर्शनोंके बहानेसे किसी वनमें छोड़कर चले आओ। कृतान्तवक्र सीताको रथमें बैठाकर भयंकर वनमें ले गया। वहां ले जाकर छोड़ दिया। उस वनको देख सीताको आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-क्या यही वह निर्वाण भूमि है? कृतान्तवक्र मनुष्य था ही, उसका हृदय पिघल गया और अश्रुओंकी धारा बहाने लगा। सीताके पूछनेपर उसने सब वृत्तांत सुनाया। सीता इस आकस्मिक वज्रपातसे मूर्छित हो गई। क्षणिकमे सचेत हो मनस्विनी सीता कहने लगी "भाई, रुदन मत करो। प्रसन्नतासे अपने स्वामीके पास जाओ" किंतु वहां जाकर हमारा एक संदेशा अवश्य कह देना कि 'जनापवादके भयसे मुझे निरापराधिनीको जिस तरह छोड़ दिया, इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके भयसे जैन धर्मको नहीं छोड़ देना।' देखो, कैसा गम्भीर और मर्मस्पर्शी उपदेश हैं! ऐसी घोर दशामें सीताकी सुबुद्धि निस्तब्ध और चंचलतासे बिल्कुल शून्य हैं। आज उसकी जीवन-लीला संसारके सब सुखोंसे दूर हैं, तो भी वह अपने स्वाभाविक धैर्य, साहस और नैतिक बलका अवलम्बन कर आपत्ति पुजको सरलतासे सहन करती चली जाती है। पाठक और पाठिकागण! देखो, संसारका दृश्य अनोखा है। जो जानकी जगदीश रामचंद्र बलभद्रकी प्रधान रानी है, वही

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