Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 13
________________ ऐतिहासिक स्त्रियाँ इधर महलोंमें स्थित कोमल-चित्त राजुलदेवीको यह समाचार मिले कि, "नेमिनाथने वैराग्य ले लिया।" इन शब्दोंने उस देवीके हृदयरूपी कमलका दहन कर दिया। कहां तो वह परम हर्ष और कहां यह विपत्तिका पहाड़ ! सारे राजमहलमें खलबली मच गई। सब मनुष्योंके मुख पर शोक ही शोक झलकने लगा। राजुलदेवीको सब कुटुम्बीगण समझाने लगे। सबने चाहा कि इन्हे अन्यान्य भोग सामग्रियोंमें लुभा देवें और श्री नेमिप्रभु का दुःख भुला दें। परंतु यह सती ऐसी बुद्धिहीना न थी। राजुलदेवीको उस समय सारा संसार शून्य दिखने लगा। वह क्षणभर भी वहां न टिकीं। समस्त भूषण वस्त्र उतार, वैराग्यमें उद्यम करने लगी। अपने पूर्वकृत कर्मोके लेख को देख, अपनी निन्दा करने लगीं। पाठक पाठिकागण। राजुलदेवीके सतीत्व और स्वार्थत्यागकी प्रशंसा लेखनीसे नहीं हो सकती, आप लोग स्वयं अंतरङ्गमें विचार लेंगे। ये महासती समस्त कुटुम्बियोंसे विदा मांग, जगतका मोह छोड़, पर्वतपर ही चली गई। वहां पहाड़ोंको भयानक गुफाओंमें अकेली रहकर परम तप करने लगी। अहा धन्य है! इस सतीको, जिसने पतिके सम्बन्धको इतना दृढ़ निवाहा! इसीका नाम है पतिके सुखमें सुखी और दुःखमें दुःखी होना! इसीका नाम है प्रतिव्रत! जो इतने अल्प सम्बंधित पतिको ही अपना सर्वस्व समझ स्थिर हो गई। जिस तरह पतिने संसार त्याग, उसी तरह स्वयं भी साध्वी हो गई। इधर श्री नेमिनाथ स्वामीकों केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। घातिया कर्मोके नाशसे निर्मल केवलज्ञान ज्योति ऐसी स्फुरायमान

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