Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1 Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 7
________________ दर्शन शास्त्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर खड़े होकर जब हम देखते हैं तो उस युग के चिन्तन का एक स्पष्ट चित्र हमारे सामने उभर आता है। प्रत्येक धर्म-परम्परा अपने आध्यात्मिक परिष्कार में लगी थी। विचारों का नया परिवेश सजाने में व्यस्त थी। बौद्धों के आचार-प्रधान हीनयान का विचार-प्रधान महायान में बदल जाना, वैदिक परम्परा के कर्मकाण्ड प्रधान पूर्व-मीमांसा का ज्ञान-प्रधान उत्तर मीमांसा एवं वेदान्त में परिवर्तित हो जाना, अवश्य ही किसी गंभीर चिन्तन एवं विचार मन्थन के परिणाम रहे होंगे ? महायान का विज्ञानाद्वैत एवं शून्यवाद और वेदान्त का अद्वैतवाद जब जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत हुआ तो सहज ही उस युग की जन-चेतना स्थूल से सूक्ष्म की ओर, बाह्य से अन्तर की ओर प्रयाण कर रही थी। यूग-चेतना के इस प्रवाह में जैन परम्परा के लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वह अपने मूल आगमों में सूत्र रूप से निहित अध्यात्मवादी चिन्तन को पल्लवित पुष्पित करके नये रूप में युग के समक्ष प्रस्तुत करे । इस महान् कार्य को संपन्न किया-आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने । आचार्य सिद्धसेन का कार्य सीमित क्षेत्र में हुआ और धीरे-धीरे उसकी दिशा दूसरी ओर मुड़ गई । आचार्य कुन्दकुन्द का क्षेत्र असीम था। उन्होंने आगमसागर का मन्थन करके अध्यात्मवाद का अमृत निकाला और उसे युग की शैली और अध्यात्म की गंभीर भाषा में प्रस्तुत किया। अध्यात्म चिन्तन को इस कड़ी को पूरी करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र आये । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर उन्होंने स्वतन्त्र एवं विशद टीकाएं लिखकर उनके चिन्तन को और प्रखरता के साथ व्यक्त किया। विज्ञानाद्वैतवाद और शून्यवाद से प्रभावित जन मानस को वीतराग दर्शन की ओर आकर्षित करने के लिए यह प्रयत्न आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य था। उत्तर काल में अध्यात्म पर जितना चिन्तन मनन हुआ है वह सब विचार रूप से आचार्य कुन्दकुन्द का ऋणी है, इसमें कोई दो मत नहीं। समय-समय पर प्रत्येक अध्यात्मवादी चिन्तक उस चिन्तन के आधार पर युग की भाषा में अपना नवीन एवं सुलझा हआ चिन्तन प्रस्तुत करके जनमानस की आध्यात्मिक क्षुधा को परितृप्त करते आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 380