Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं कर सकता। उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है
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'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी । तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी | अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना ।
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दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना ॥ " 1 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है । उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है । वे लिखते हैं
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'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो ।
प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ॥ शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेह समीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी,
पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 2
यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य परमात्म-प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशुद्ध निरूपाधिक प्रेम है । इसप्रकार, विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्म-ब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता है ।
विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानवमानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम - पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह - ईश्वर, रूद्र- शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है । एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय - दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है
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'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा ।
सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
2. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /50