Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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निर्मम, निरहंकार, वीतराग और आस्रवों से रहित निर्ग्रन्थ मुनि, शाश्वत केवल ज्ञान को पाकर परिनिवृत्त हो जाता है अर्थात् पूर्णतया आत्मस्थ हो जाता है। 53. हितकारी परिताप
कामं परितावो, असायहेतु जिणेहिं पणतो। आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले खलु उ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 297]
- बहदावश्यक भाष्य 5108 यह ठीक है कि जिनेश्वर देव ने पर-परिताप को दु:ख का हेतु बताया है, किन्तु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जानेवाला परिताप इस कोटि में नहीं आता है, चूंकि वह तो स्व-पर का हितकारी होता है । 54. लोभ में अनाकृष्ट
णीवारे य न लीएज्जा, छिन्न सोते अणाइले ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 306] .
- सूत्रकृतांग 1/15/12 शोक और विषय-कषाय रहित आत्मा, प्रलोभन देकर सूअर को फंसाने वाले चावल के दाने की तरह क्षणिक विषय-लोभ में आकर्षित न होवे । 55. तपश्चरण
भव कोडी संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जई ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 321] - एवं [भाग 4 पृ. 2200]
- उत्तराध्ययन 30/6 साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपश्चरण के द्वारा क्षीण कर देता है। 56. तप, कर्मक्षय - प्रक्रिया
जहा महातलागस्स, सन्निरूद्धे जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/69