Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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एवं तु संजयस्सा वि पावकम्म निरासवे । भवकोड़ि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 321] - एवं [भाग 4 पृ. 2199 - 2200]
- उत्तराध्ययन 30/5-6 जिसप्रकार किसी बड़े तालाब का पानी समाप्त करने के लिए पहले जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं फिर कुछ पानी उलीच-उलीच कर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है उसीप्रकार संयमी पुरुष व्रतादि के द्वारा नए कर्सिवों को रोक देता है और पुराने करोड़ों जन्मों के संचित किए हुए कर्मों को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर डालता है । 57. दुर्लभ मानव-भव . माणुस्सं खु सुदुल्लहं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 322]
- उत्तराध्ययन 20/11 मनुष्य जन्म निश्चय ही दुर्लभ है। 58. अनाथ नाथ कैसे ?
अप्पणा अणाहो संतो, कहस्स नाहो भविस्ससि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 323]
- उत्तराध्ययन 20/12 तू स्वयं अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे होगा ? 59. मित्र-शत्रु कौन ?
अप्यामित्तममित्तं च दुप्पट्ठि य सुपट्ठिओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325] - एवं [भाग 2 पृ. 231]
- उत्तराध्ययन 20/37 सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। 1 . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/70