Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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16. अगीतार्थ-संसर्गः दुःखद
विसं खाएज्ज हालाहलं, तं किर मारेइ तक्खणं । ण करेग्गीयत्थसंसग्गि, विढवे लक्खंपिजं तहि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 162]
- महानिशीथ 6/150 हलाहल विषपान करना श्रेष्ठ है, जो तत्क्षण मृत्यु प्रदान कर मुक्त कर देता है; किन्तु लाखों का लाभ होने पर भी अगीतार्थ का सहवास / संसर्ग नहीं करना चाहिए क्योंकि वह क्षण-क्षण दु:ख देता है । 17. अगीतार्थ के साथ मत रहो
अगीयत्थेण समं एक्कं, खणंद्धपि न संवसे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 162]
- महानिशीथ 6/148 अगीतार्थ के साथ एक क्षण भी न रहें । 18. धीर साधक
अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 164]
- आचारांग 1/3/2 हे धीर साधक ! तू अग्र और मूल का विवेक करके उसे पहचान । 19. धन की बैसाखी पर धर्म नहीं चलता
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्या नीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धिपङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 179] - पद्मपुराण 5/19/252
एवं हारिभद्रीय अ. 4/6 धर्म-कार्य के लिए जिसे धन की चाह है, उसकी वह चाह भी श्रेयस्कर नहीं होती है । कीचड़ लगाकर फिर उसे धोने की अपेक्षा दूर रहकर उसे नहीं छूना ही अच्छा है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/59