Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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"रंग रसीला मारा, प्रेम पनोता मारा, सुखरा सनेही मारा साहिबा ।
पिउ मोरा चोपड़ इणविध खेल हो ॥ चार चोपड़ चारों गति, पिउ मोरा चोरासी जीवा जोन हो ।
कोठा चोरासिये फिरे, पिउ मोरा सारी पासा वसेण हो ॥" 1 यह चौपड़ का सुन्दर रूपक है और उसके द्वारा चतुर्गति रूप संसार में चौपड़ का खेल खेला जा रहा है। साधक की शुद्धात्म-प्रिया चेतन रूप प्रियतम को चौपड़ के खेल का रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि चौपड़ चार पट्टी और 84 खाने की होती है। इसीतरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी 84 लक्षयोनि रूप 84 घर-उत्पत्ति-स्थान होते हैं । चतुर्गति चौपड़ के खेल को जीतकर आत्मा जब विजयी बन जाती है, तब वह मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करती है।
अध्यात्मयोगी संत आनंदघन ने भी ऐसी ही चौपड़ खेली है -
"प्राणी मेरो, खेलै चतुरगति चोपर।। नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ॥ राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हितधर ।
जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥" 2 विश्वपूज्य का काव्य अप्रयास हृदय-वीणा पर अनुगुंजित है । 'पिउ' [प्रियतम] शब्द कविता की अंगूठी में हीरककणी के समान मानो जड़ दिया। .
विश्वपूज्य की आत्मरमणता उनके पदों में दृष्टिगत होती है। वे प्रकाण्ड विद्वान् - मनीषी होते हुए भी अध्यात्म योगीराज आनन्दघन की तरह अपनी मस्त फकीरी में रमते थे । उनका यह पद मनमोहक है - 'अवधू आतम ज्ञान में रहना,
किसी कु कुछ नहीं कहना ॥' 3 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है। उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है, क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है। विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीर-सा फक्कड़पन झलकता है। उनका यह पद द्रष्टव्य है -
"ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा । ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे
सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥" :
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
2 आनन्दघन ग्रन्थावली 4. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/49