Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 12
________________ वैशेषिकमत-विचार ___ (वैशेषिक) जिनेन्द्र देव की जो "कर्मरूपी पर्वत को भेदने वाले." इस विशेषण द्वारा स्तुति की गई है, यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि किसी भी सर्वज्ञ या ईश्वर के साथ कर्मों का सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं होता, और सदा मुक्त होने से जब कर्म का सम्बन्ध ही असिद्ध है तब नाश किस का होगा । (जैन), खैर। प्रसिद्धः सर्वशास्त्रज्ञस्तेषां तावत्प्रमाणतः। सदाविध्वस्तनिःशेषबाधकात् खसुखादिवत् ॥७॥ सर्वज्ञ मानने में तो आप को भी कोई विवाद (उज्र) नहीं है, क्योंकि आप वैशेषिक महाशय किसी भी बाधक कारण के न रहने से ईश्वर में सुखादिक की तरह सर्वज्ञता तो स्वयं ही मानते हैं। ज्ञाता यो विश्वतत्वानां, स भेत्ता कर्मभूभृतां । भवत्येवाऽन्यथा तस्य विश्वतत्वज्ञता कृतः॥॥ और जब ईश्वर को सर्वज्ञ मान लिया, तब कर्म रूपी पर्वत का भेदने वाला भी अवश्य ही मानना पड़ेगा, नहीं तो कर्म-नाशक विना माने मामूली पुरुषों की तरह सर्वज्ञता भी ईश्वर में सिद्ध नहीं हो सकेगी। नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद्विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायसिद्धस्य, सर्वथानुपपत्तितः ॥ ९ ॥

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