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वैशेषिकमत-विचार । मानने पर संसार के कार्यों का क्रम २ से होना सिद्ध नहीं हो सकता। अखसंविदितं ज्ञानमीश्वरस्ययदीष्यते । तदा सर्वज्ञतान स्यात स्वज्ञानस्याप्रवदेनात् ॥३६॥
नैयायिक व वैशेषिक वगैरह ईश्वर के ज्ञान को ऐसा मानते हैं कि वह अन्य पदार्थों को तो जानता है, किन्तु अपने स्वरूप को नहीं जानता, इस लिये उन पर यह शंका उपस्थित होती है कि जब ईश्वर के ज्ञान ने अपने स्वरूप को भी नहीं जाना फिर ईश्वर में सर्वज्ञपना कैसा ? क्योंकि सर्वज्ञ तो सब पदार्थों के जानने वाले को कहते हैं और वह अपने स्वरूप को भी नहीं जानता इस कारण ईश्वर में सर्वज्ञपना नहीं सिद्ध होता। ज्ञानान्तरेण तद्वित्तौ तस्याप्यन्येन वेदनं । वेदनेन भवेदेवमनवस्था महीयसी ॥ ३७ ॥ गत्वा सुदूरमप्यवं खसंविदितवेदने । । इष्यमाणे महेशस्य प्रथमं तादृगस्तुवः ॥ ३८ ॥ ___ और यदि यह कहोगे कि ईश्वर का ज्ञान अपने को स्वयं नहीं जानता तो क्या हुआ, ईश्वर दुसरे बान से