Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 73
________________ ६४ आन-परीक्षा। पक सिद्धान्त है कि जहां पर जिस के शत्रु की वृद्धि होती है वहां पर उस की नियम से हीनता होती है, जैसे कि किसी पदार्थ में जितनी २ उष्णता की वृद्धि होती जायगी, उतना.२ ही वह पदार्थ शीत का नाशक होता जायगा। (मीमांसक) यह बात तो हम भी मानते हैं कि शत्रु की वृद्धि से हानि होती है, किन्तु यह तो वताइये कि कर्म किसे कहते हैं, कर्मों के भेद कितने हैं और उनके लक्षण क्या २ हैं, कर्मों के शत्रु कौन हैं, और उनका उत्कर्ष आत्मा में कैसे सिद्ध होता है । जैनतेषामागमिनां तावद्विपक्षः संवरो मतः तपसा सञ्चितानां तु निर्जरा कर्मभूभृताम् ॥११॥ तत्प्रकर्षः पुनः सिद्धः परमः परमात्मनि । तारतम्यविशेषस्य सिद्धरुष्णप्रकर्षवत् ॥१११॥ कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभावविकल्पतः । द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा ॥११२।। भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मानि भान्ति नु । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथञ्चिच्चिदभेदतः ॥११३॥ जिन के सम्बन्ध से आत्मा में विकार होता है,

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