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जैनमत- विचार |
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गया, तब आप स्वयं ही सर्वज्ञ हो गये, फिर सर्वज्ञ का निषेध कैसे कर सकते हो। और जब आप " प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम व अभाव" इन छहों प्रमाणों में से किसी के द्वारा भी अर्हतदेव में सर्वज्ञपने का निषेध नहीं कर सके, और सर्वज्ञ के साधक हमारे माने हुए प्रेमयत्व हेतु में कोई भी दोष नहीं दे सके । तब - एवं सिद्धः सुनिर्णीतासम्भवद्बाधकत्वतः । सुखवद्विश्वतत्त्वज्ञः सोऽर्हन्नेव भवानिह ॥ १०८॥
तदेव की सिद्धि में बाधक प्रमाण की असंभवता निश्चित हो जाने से, अर्थात अर्हत देव को सर्वज्ञ मानने में कोई भी बाधक प्रमाण न रहने से, तथा वैशेषिक, सांख्य, वौद्ध आदिक के माने हुए ईश्वर, कपिल, सुगत आदिक देवों में सर्वज्ञपना न सिद्ध होने से, अनंत सुखादिक गुणों की तरह सर्वज्ञपना भी अईतदेव में ही सिद्ध होता है। और
स कर्मभूभृतां भेत्तातद्विपक्षप्रकर्षतः । यथा शीतस्य भेत्तेह कश्चिदुष्णप्रकर्षतः ॥ ११०॥
कर्म रूपी पर्वत के भेदने वाले भात देव ही सिद्ध होते हैं; क्योंकि अर्हतदेव की आत्मा में कर्मों के शत्रुभूत गुणों की वृद्धि हो गई है, और यह संसार का व्या