Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ आप्त-परीक्षा । वीतनिःशेषदोषोऽतः प्रद्योर्हन् गुणांबुधिः । तद्गुणप्राप्तये सद्भिरिति संक्षेपतोऽन्वयः ॥१२०॥ समस्त दोषों से रहित, सम्यग्दर्शनादि गुणों के समुद्र अहंतदेव ही इन गुणों की प्राप्ति के लिये सज्जनों से वंदनीक होते हैं । यही बात संक्षेप से इस ग्रन्थ में दिखाई गई है। __ अब ग्रन्थकार अन्तिम मंगलाचरण करते हैं। कि-- मोहाक्रान्तान्न भवति गुरो मोक्षमार्गप्रणीति-। नर्ते तस्याः सकलकलुषध्वंसजा स्वात्मलब्धिः । तस्यै वंद्यः परगुरुरिह क्षीणमोहस्त्वमर्हन् । साक्षात्कुर्वन्नमलकमिवाशेषतत्त्वानि नाथ ॥१२१ हे नाथ यह मुझे भले प्रकार निश्चय है कि मोह जाल में फंसे हुए गुरुत्रों के द्वारा कदापि मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं हो सकता, इसलिये हे भगवन् , हथेली पर रक्खे हुए आंवले की तरह समस्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाले, और मोह को नाश करने वाले आप जैसे परमगुरु ही निज स्वरूप की प्राप्ति के लिये बंदनीक हो सकते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82