Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 64
________________ जैनमत-विचार । आपके अहंतदेव भी मनुष्य हैं और बोलते चालते व व्याख्यान देते हैं, फिर उनमें ही अन्य सब से विलक्षण सर्वज्ञपनेका अतिशय कैसे हो सकता है। (जैन) हेतोरस्य विपक्षण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादेः प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिएससिद्धितः ॥९९॥ मीमांसक के कहे हुए वक्तृत्व व पुरुषत्व हेतु भी सर्वत्र के वाधक नहीं हो सकते क्योंकि बाधक वे ही हुआ करने हैं, जिनका कि परस्पर में विरोध हो, और विरोध उन्हीं दोनों का हुआ करता है जिनमें कि एक के उत्कर्ष से दूसरे का अपकर्ष होता हो, और बचनशक्ति के उत्कर्ष होने पर सर्वज्ञपने का अपकर्ष होता नहीं, इसलिये इन दोनों में परस्पर विरोध भी नहीं होता, विरोध न होने से बचन शक्ति सर्वज्ञपने की बाधक नहीं हो सकती, वाधक न होने से बचनशक्ति के द्वारा सर्वज्ञपने का अभाव नहीं सिद्ध हो सकता । इसी प्रकार मीमांसक का उपमान प्रमाण भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं हो सकता, क्योंकिनोपमानमशेषाणां नृणामनुपलम्भतः । उपमानोपमेयानां तद्बाधकमसम्भवात् ॥१०॥ समान धर्म वाली को सभी सिपकाला को जान कर, दूसरी वस्तु ke वस्त को सदृर्शता के गाने को,

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