Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 62
________________ जैनमंत-विचार । (मीमांसक) जब कि आपके माने हुए अर्हतदेव में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति व आगम किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञपना सिद्ध नहीं होता, बल्कि ये सब प्रमाण सर्वन के बाधक ही ठहरते हैं सब अहंत देव में सर्वज्ञपने का अभाव ही मानना चाहिये, (जैन) प्रत्यक्षमपरिच्छिन्दस्त्रिकालं भुवनत्रयम् । रहितं विश्वतत्त्वज्ञैर्नहि तहाधकं भवेत् ॥१६॥ हम मीमांसक से पहिले प्रत्यक्षज्ञान के विषय में पूछते हैं कि इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का निषेध करते हो या अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से ? यदि इन्द्रिय जन्यप्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का निषेध करते हो तो भी नहीं बन सकता क्योंकि इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष में इतनी शक्ति ही नहीं है कि, वह यह जान सके, कि तीन लोक वतीनों कालों में कोई भी व्यक्ति सर्वत्र नहीं है। और यदि इतनी शक्ति मान भी लीजाय तो भी सर्वज्ञ का निषेध नहीं हो सकता क्योंकि जो पुरुष इन्द्रियजन्य ज्ञान से तीन लोक व तीन काल की व्यक्तियों को जान कर सर्व का निषेध करता है वह स्वयं ही सर्वत्र ठहर जाता है । इस लिये इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष-प्रमाण तो सर्वज्ञ का बाधक हो नहीं सकता, रहा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष. वह उलटा बाधक की जगह सर्वज्ञ का साधक ही होता है, इस लिये इन्द्रिय

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