Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 37
________________ २८ आप्त-परीक्षा। व्यावृत्ति कैसे हो सकती है। यदि थोड़ी देर के लिये समवाय की सिद्धि मान भी ली जाय, तो भी हम पूछते हैं कि जैसे महेश्वर में ज्ञान समवाय सम्बन्ध से रहता है, उसी प्रकार महेश्वर और ज्ञानरूप समवायियों में समवाय भी दूसरे समवाय सम्बन्ध से रहना चाहिये, क्योंकि दोनों स्थानों में एक सी ही प्रतीति होती है, और आपने समवायियों में समवाय का दूसरे समवाय सम्बन्ध से रहना माना नहीं है किन्तु विशेषण विशेष्य सम्बन्ध से रहना माना है। इस प्रकार समवाय की सिद्धि के लिय दिया हुआ हेतु जब विशेषण विशेष्य सम्बन्ध में चला गया, तब वह व्यभिचारी होगया, और हेतु के व्यभिचारी होने से फिर भी समवाय की सिद्ध नहीं हुई। ( वैशेषिक ) समवायान्तराद् वृत्तौ समवायस्य तत्वतः। समवायिषु तस्यापि परस्मादित्यनिष्ठितिः ॥५१॥ तद्वाधाऽस्तीत्यबाधत्वं नाम नेह विशेषणं । हेतोः सिद्धमनेकान्तो यतोऽनेनेति ये विदुः॥५२॥ तेषामिहेति विज्ञानाद्विशेषणविशेष्यता । समवास्य तद्वत्सु तत एवन सिध्यति ॥ ५३॥ विशेषणविशेष्यत्वसवंधोऽप्यन्यतो यदि । खसंवधुिषु वर्त्तत तदा बाधानवस्थितिः ॥५४॥

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