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वैशेषिकमत-विचार ।
३५ यदि यह कहोगे कि ईश्वर न तो स्वयं ज्ञाता (जानने वाला चेतन ) है और न स्वयं अज्ञाता, (नहीं जानने वाला अचेतन) किन्तु ज्ञान के समवाय से ज्ञाता है,
और आकाश स्वयं ही अचेतन है, इसलिये महेश्वर और आकाश में भेद है ही, तो हम पूछते हैं कि जैसे आप ईश्वर को न स्वयं चेतन मानते हो और न स्वयं अचेतन मानते हो, उसी प्रकार ईश्वर को आत्मा भी मानते हो या नहीं । (वैशेषिक) ईधर न स्वयं आत्मा ही है, और न स्वयं अनात्मा ही है किंतु आत्मत्वधर्म के समवाय से आत्मा माना जाता है। (जैन.). यदि ईश्वर खयं आत्मा या अनात्मा भी नहीं है, तो क्या स्वयं द्रव्य भी नहीं है ? (वैशेषिक) जब हम धर्म व धर्मी का सर्वथा भेद मानते हैं, तब वह ईश्वर स्वयं द्रव्य, अथवा अद्रव्य कैसे हो सकता है, द्रव्यत्व जाति के समवाय से ही ईश्वर द्रव्य कहा जा सकता है, (जैन) तो हम को मालूम होता है कि आप ईश्वर को स्वयं सत्स्वरूप भी नहीं मानते होगे । (वैशेषिक) इस में क्या संदेह है, ईश्वर स्वयं सत्स्वरूप अथवा असत्वरूप नहीं ही होता है, किंतु सत्ता के समवाय से सत्स्वरूप कहा जाता है। (जैन) इस तरह सब ही धर्मों को यदि आप ईश्वर से सर्वथा भिन्न मानोगे, तो ईश्वर का कोई भी निज स्वरूप सिद्ध नहीं हो सकेगा, और