Book Title: Aaptpariksha
Author(s): Umravsinh Jain
Publisher: Umravsinh Jain

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Page 20
________________ पौराणिकमत -विचार | ११ शरीर मानना पड़ेगा, और तीसरे के लिये चौथा, इस प्रकार कहीं भी अन्त नहीं आवेगा, ( इसे ही अनवस्था दोष कहते हैं) और दूसरे इन शरीरों के बनाने की उलझन में पड़ जाने से ईश्वर का “निग्रह अनुग्रह करना " सब ज्यों का त्यों रखा रह जायगा । स्वयं देहाविधाने तु तेनैवव्यभिचारिता । कार्यत्वादेः प्रयुक्तस्य हेतोरीश्वरसाधने ॥ २१ ॥ और यदि ऐसा मानोगे कि ईश्वर अपने शरीर को नहीं बनाता है, किन्तु उस का शरीर स्वयं ही उत्पन्न हो जाता है, तो जैसे ईश्वर का शरीर बिना ईश्वर की इच्छा व प्रयत्न के ही उत्पन्न हो गया, उस ही प्रकार संसार के प्रत्येक कार्य भी उत्पन्न हो जायगे, फिर उन के लिये ही ईश्वर को कारण क्यों मानते हो । (शंकर) यथाऽनीशः स्वदेहस्य, कर्त्ता देहान्तरान्मतः । पूर्वस्मादित्यनादित्वान्नानवस्था प्रसज्यते ॥ २२ ॥ तथेशस्यापि पूर्वस्माद्देहा देहान्तरोद्भवात् । नानवस्थेति यो ब्रूयात्तस्याऽनीशत्वमीशितुः ॥ २३॥ अनीशः कर्मदेहेनानादिसंतानवर्त्तिना । यथैव हि सकर्मा नस्तद्वन्न कथमीश्वरः ॥ २४ ॥

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