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आप्त- परीक्षा
जिस प्रकार संसारी जीवों का एक शरीर दूसरे शरीर से, दूसरा शरीर तीसरे शरीर से, तंसिरा चौथे से, चौथा पांचवे से उत्पन्न होता है, और इस ही तरह अनादि काल से अनन्त शरीरों की संतति चलते रहने पर भी अनवस्था दोष नहीं आता, उसही प्रकार ईश्वर के एक शरीर को दूसरे से और दूसरे को तीसरे से उत्पन्न मानने में भी अनवस्था दोष नहीं आ सकता। (जैन) इस प्रकार ईश्वर के साथ अनन्त शरीरों का सम्बन्ध मान कर आपने तो उस को एक तरह का कर्म सहित संसारी जीव हो बना लिया, और उसका ईश्वर पना ही नष्ट कर दिया, क्यों कि जैसे संसारी जीव अनादिकालीन शरीरों का सम्बन्ध होने से ईश्वर नहीं कहलाते, और बरावर कर्म लिप्त रहते हैं, उस ही प्रकार ईश्वर को भी संसारी जीवों का दृष्टान्त देने से कर्म लिप्त ही मानना पड़ेगा, और कर्मलिप्त मानने से उस में ईश्वर पना ही क्या रहेगा ?
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ततो नेशस्य देहोऽस्ति प्रोक्तदोषानुषंगतः । नापि धर्मविशेषोऽस्य, देहाभावे विरोधतः ॥ २६ ॥ येनेच्छामांतरेणाऽपि तस्य कार्ये प्रवर्तनम् । जिनेन्द्रचः घटेल, मोद्राहरणसंभवः ॥ २७ ॥