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आप कुछ भी कहो
( १ )
" नमोऽस्तु " की विनम्र ध्वनि ने ऋषिराज का ध्यान भग्न किया तो उनके मुखारविन्द से सहज ही मंगल आशीर्वाद प्रस्फुटित हुआ
" धर्मवृद्धिरस्तु "
विनत राज श्रेष्ठी का म्लान मुख देखकर ऋषिराज बोले " बोलो, क्या बात है ?"
अन्तर के भावों को छिपाते हुए श्रेष्ठीराज कहने लगे
"कुछ नहीं, - बस, आपके दर्शन करने ही चला आया हूँ ।"
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'असमय में आगमन एवं म्लानमुख सब कुछ कह रहा है; छुपाने का प्रयत्न व्यर्थ है, आवश्यक भी नहीं ।"
'महाराज छुपाने की तो कुछ बात नहीं, पर ।"
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" पर संकोच किस बात का ? जब ....
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"महाराज ! आपकी यह पीड़ा देखी नहीं जाती, सही नहीं जाती; दिगम्बरत्व का अपमान बरदाश्त नहीं होता।"
"हमें कैसी पीड़ा ? हम तो अतीन्द्रिय आनन्द में मग्न रहते हैं । "
"आपका सम्पूर्ण शरीर कुष्ठ से गल रहा है "
"यह तो जड़ पुद्गल का परिणमन है। इससे हमारा क्या लेना-देना? जबतक संयोग है, तबतक रहेगा। पुण्य-पाप के अनुसार इसका जैसा परिणमन