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[ आप कुछ भी कहो
"क्या नाम है इन शास्त्रों का ?" - जब उसने यह पूछा तो सभी एक साथ बोले - "तिरिया-चरित्तर" "अच्छा" - आश्चर्य व्यक्त करती हुई पनिहारिन बोली।
पनिहारिन पर प्रभाव पड़ते देख उन्होंने पण्डितराज की प्रशंसा के ऐसे पुल बाँधे कि पनिहारिन गद्गद् हो गई।
उसने अति ही विनम्र शब्दों में उनसे अनुरोध किया कि इतने विद्वान् शास्त्रज्ञ पण्डितराज हमारे गाँव से निकल जावें और हम इनकी कुछ भी सेवासत्कार न कर सकें तो हमारे जैसा अभागा कौन होगा। आज तो महाराज सहित आप सबको हमारे घर पधारना होगा, भोजनपान करके ही जाना होगा। जो कुछ भी बनेगा; महाराज को तो दान-दक्षिणा देंगे ही, आप लोग भी समुचित सेवा से वंचित नहीं रहेंगे। किसी भी प्रकार हो, मुझे महाराजश्री के दर्शन करा दीजिए, महाराज से मिलवा दीजिए। उनके अगाध पाण्डित्य का थोड़ा-बहुत लाभ हमें भी मिलना चाहिए।
उसकी श्रद्धा-भक्ति देखकर वे उसे पण्डितराज के पास ले गये। उसने भी पण्डितराज की भगवान जैसी स्तुति की। पण्डितों को और चाहिये भी क्या ? __ प्रशंसा मानव-स्वभाव की एक ऐसी कमजोरी है कि जिससे बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं बच पाते हैं। निन्दा की आँच भी जिसे पिघला नहीं पाती, प्रशंसा की ठंडक उसे छार-छार कर देती है।
पुस्तकों के कीड़े विश्वविद्यालयीन विशेषज्ञों के समान पोथियों में ही मग्न पण्डितराज ने नारी-चरित्रों को पढ़ा ही पढ़ा था, लिखा ही लिखा था; लखा नहीं था।
नारियों को नरक का द्वार माननेवाले ब्रह्मज्ञानी पण्डितराज जब उनकी ओर देखना भी पाप समझते थे तो उनका अध्ययन कैसे कर सकते थे ? उनकी दृष्टि में अध्ययन की वस्तु तो एकमात्र पोथियाँ हैं, शास्त्र हैं; सो उन्होंने हजारों शास्त्र-भण्डार छान ही मारे थे।