Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 89
________________ असन्तोष की जड (१) प्रिय सखी शान्ता, तुम्हारा पत्र मिला। तुम लिखती हो कि उन्हें मना क्यों नहीं लिया ? पर तुम नहीं समझती, मैं भी नहीं समझती थी कि देवता मनाने से नहीं मनते। जो मनाने से मन जायें, वे देवता नहीं। ___ ये कमजोरियाँ तो सामान्यजनों की है कि जरा-सा हास्य या दो आँसू उन्हें कर्त्तव्य से च्युत कर सकते हैं। पर जो इस कमजोरी से मुक्त हैं, वही तो देवता हैं । उन्हें मनुष्यों के समान जल्दी उफान नहीं आता। उनका प्रत्येक कदम बहुत सोच-समझकर उठता है; पर जो कदम उठ जाता है, वह पीछे नहीं हटता। विचार उनके लिए खिलौना नहीं, जीवन है ; उनके कदम घूमने के लिए नहीं, आगे बढ़ने के लिए उठते हैं। ___ यद्यपि उनके कदम देर से उठते हैं, पर सोच-समझकर उठते हैं और लक्ष्य की ओर दृढ़ता से बढ़ते हैं। उस दिन कुएं के घाट पर जो हुआ, वह मुझे स्पष्ट याद है। शायद तुम कल्पना करती हो कि वही सव-कुछ हुआ होगा, जो श्रीकृष्ण के गगरी फोड़ देने पर पनघट पर होता था; पर नहीं, वह तो देवता की किशोरावस्था का उच्छंखल रूप था; यहाँ तो वे धीर-गंभीर मर्यादापुरुषोत्तम जैसे स्वरूप में उपस्थित थे। बात यों हुई। अष्टमी की रात थी। चाँद अभी उग ही रहा था। सर्वत्र सन्नाटा था। कभी-कभी पुलिसवाले की सीटी की आवाज अवश्य सुनाई दे जाती थी।

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