Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 90
________________ [ आप कुछ भी कहो या फिर एकाध बार कुत्ता भी अपनी जागृत अवस्था का परिचय दे जाता था। बीच-बीच में पड़ौसी बुड्ढे की खाँसी रात्रि की निस्तब्धता भंग कर देती थी; किन्तु पड़ौसिन की घर्राहट तो सन्नाटे में मिली हुई सी ही महसूस होती थी। सारा धरातल निस्तब्ध शान्त था, पर मेरे हृदय में तूफान उठ रहा था। मैं सोच रही थी कि बहुत हो चुका, अब आज मुझे अन्तिम निर्णय करना ही है। इस तरह तो इतनी लम्बी जिन्दगी बिताई नहीं जा सकती। जब मुझे कोई चाहता ही नहीं तो फिर। कोई मुझ से सीधे मुँह बात भी तो नहीं करता, बरदाश्त करने की भी कोई हद होती है। ___पर करूँ तो करूँ क्या ? कोई रास्ता भी तो नहीं सूझता। इस सड़ी जिन्दगी से बचने का उपाय एक मौत ही है, पर यदि जिन्दगी दुश्वार है तो मौत भी तो आसान नहीं। . आज मुझे दो में से एक को चुनना ही है - यह सड़ी जिन्दगी या फिर मौत।.... बस फिर क्या था? मेरी आँखों के सामने जिन्दगी और मौत नाचने लगी। मेरे दिमाग में बस यही विचार तेजी से घूम रहे थे - जिन्दगी या मौत मौत या जिन्दगी...। अन्त में मैं चुपचाप उठकर चल दी। मैं पुलिसवाले की निगाह बचाते हुए आगे बढ़ ही रही थी कि कुत्ते की अर्द्धनिद्रावस्था को धोखा न दे पाई। भौंभौं की आवाज करके जगत को जागृत करने का कर्त्तव्य उसने बखूबी निभाया; पर किसे पड़ी थी, जो उसकी चेतावनी पर ध्यान देता ? एक तो किसी ने सुना ही नहीं होगा; यदि किसी के कान में उसकी आवाज पड़ी भी होगी तो उसने यह कहकर करवट बदल ली होगी कि इन कुत्तों के मारे भी नाक में दम है, सोना भी दूभर हो गया है। ___ मैं तेजी से बढ़ी जा रही थी और अब कुए के घाट पर थी; ऊपर को देखती हुई हाथ जोड़कर कह रही थी -

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