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तिरिया-चरित्तर ] .
७५ पति को अपनी मूर्खता पर लज्जा का अनुभव हो रहा था। उसे और अधिक लज्जित करने के उद्देश्य से वह बड़ी देर तक हँसती ही रही। जब उस पर घड़ों पानी पड़ गया तो इसने पैंतरा बदला और घृणा व्यक्त करती हुई उसे फटकारने लगी।
"भगवान ने तुम्हारे हृदय को क्या शंकालु परमाणुओं से ही बनाया है ? बरसों तुम्हारे घर में रहते हो गये, पर तुम्हें अबतक मुझ पर विश्वास ही नहीं हुआ। चार-चार बच्चों के बाप हो गये, पर मन न बदला। अपने जैसा सबको समझते हो। अपन तो दुनिया में डोलेंगे, दो-दो बजे तक घर आवेंगे; पर किवाड़ खोलने में दो मिनट की देर हो जावे तो घर को माथे पर उठा लेंगे। इतना ही शक है तो मुझे साथ ही क्यों नहीं रखते ? गले में लटका लो। पर साथ में रखेंगे कैसे ? रखेंगे तो सत्तरह जगह मुँह मारने का मौका कैसे मिलेगा? पत्नी को सती सीता देखना चाहते हैं, पर स्वयं रावण बने रहना चाहते हैं।
भगवान तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता ? अब मुझसे नहीं सहा जाता।
हे माँ, हे पिताजी; आपने मुझे पैदा होते ही क्यों न मार डाला? इससे अच्छा तो मुझे कुए में पटक देते। इस अविश्वास का दुःख मुझ से नहीं सहा जाता। मैं तो ..." __ - कहते-कहते जब वह बड़े जोर-जोर से रोने लगी तो शेर बने पति महोदय पानी-पानी हो गये।
(७)
पण्डितों के प्रवचनों में वह सामर्थ्य कहाँ, जो नारियों के आँसुओं में है। वे अपनी बात को आँसुओं से भीगी भाषा में रखने में इतनी चतुर होती हैं कि बड़े-बड़े धर्मात्मा भी अपने को पापी समझने लगें।। ___वह सीधा-सादा, सरल हृदय, सदाचारी कृषक पति उसके आँसुओं और प्रताड़न से अपने को सचमुच ही बड़ा पापी समझने लगा। फिर भी जब पत्नी का नाटकीय क्रोध शान्त न हुआ तो निराश हो उद्विग्न हो उठा।