Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ ७६ [ आप कुछ भी कहो (८) फिर एक दृश्य बदला। वह चतुर पत्नी पति की उद्विग्नता दूर करने के लिए फिर महासती बन गई, अपने अकारण क्रोध पर खेद व्यक्त करने लगी, पति परमेश्वर का दिल दुखाने के लिए परमात्मा से क्षमायाचना करने लगी। उसने अपनी कला से पलभर में ही विकृत वातावरण को एकदम सहज कर दिया। (९) रंगभूमि में दृश्य जिस तेजी से बदल रहे थे, पंडितराज उतनी तेजी से अपनी चिन्तनधारा को गति नहीं दे पा रहे थे। जबतक वे एक दृश्य की मीमांसा करते, तबतक वह दृश्य ही गायब हो जाता। नाटक के रंगमंच पर रस-परिवर्तन इस तेजी से हो रहा था कि आँखों की पुतलियाँ उनका साथ नहीं दे पा रही थीं। कभी हास्य, कभी शृंगार; कभी वीर, कभी वीभत्स; कभी करुण तो कभी शान्त रस दा परिपाक हो रहा था। यद्यपि यह सब-कुछ कुछ पलों में ही घटित हो गया था, पर किसी भी रस का परिपाक अधूरा न छूटा था। जीवन की इतनी तेज गति का अनुभव तो पंडितराज को कभी न हुआ था। जिस नारी को वे मंथर गतिवाली गजगामिनि समझ रहे थे, उसने जब अपनी चाल से जेट विमान को भी मात कर दिया तो उनका माथा चकराये बिना नहीं रहा। (१०) कृषक भोजन-पान कर खेत पर जा चुका था। अब उसने सन्दूक खोलकर पंडितराज को बाहर निकाला और व्यंग्यबाण छोड़ती हुई बोली - "तिरियाओं का यह चरित्तर भी तुम्हारी इन पोथियों में है ?" पसीना पोंछते हुए पंडितराज बोले - "नहीं, यह तो मैंने आज ही देखा है।"

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