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[ आप कुछ भी कहो
घरवालों ने किवाड़ों की खटखटाहट सुनी ही न हो, सो बात नहीं थी । सुनी तो थी, पर वातावरण की उत्तेजना में उधर किसी ने ध्यान नहीं दिया था । सेठजी भी यह चाहते थे कि थोड़ा वातावरण सहज हो जावे तो किवाड़ खोलें; क्योंकि उन्हें सम्भावना यही थी कि पण्डितजी ही पधारे होंगे। जब वे थोड़े सहज हुए तो आकर उन्होंने ही किवाड़ खोले, पर वहाँ कोई न था; अत: वे पण्डितजी के घर की ओर चल दिये।
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(३)
पण्डितजी वहाँ से लौट तो दिये थे, पर घर नहीं गये थे । उद्विग्न से थोड़ी बहुत देर यहाँ-वहाँ भटकते रहे; पर जब सहज हुए तो उन्होंने सोचा कि अभी सेठजी के यहाँ हो आना चाहिये; क्योंकि प्रतिदिन मैं उनके यहाँ इस समय जाता ही था, आज न जाने से जो सन्देह का बीज पड़ गया है, उसे अंकुरित होते देर नहीं लगेगी; अत: वे सेठजी के घर पहुँचे, पर वहाँ सेठजी तो थे नहीं । पूछने पर पता चला कि अभी-अभी बाहर गये हैं; हो सकता है आपके यहाँ ही गये हों ।
उनके मन के समान घर का वातावरण भी उन्हें उखड़ा- उखड़ा ही लगा; पर वे सेठजी की प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गये । सेठानीजी उनके पास आकर बैठी हीं थी कि उनकी आँखें सूजी हुई-सी देखकर पण्डितजी ने पूछा
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"क्यों, क्या बात है; क्या तबियत ठीक नहीं है ?"
"
' तबियत तो ठीक ही है, पर
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"पर क्या ?"
"न मालूम इनको क्या हो गया है कि जरा-जरा-सी बात पर आपे से बाहर हो जाते हैं ? "
"क्या आज कुछ बातचीत हो गई है ?"
"बातचीत; बातचीत ही होती तो क्या बात थी? मेरे मुँह से जरा निकल गया कि बस आपे से बाहर हो गये। जो मन में आया सो कहा। हमने भी बहुत सहा है, पर अब सहा नहीं जाता "
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