Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 56
________________ [ आप कुछ भी कहो बूढ़ा मानने को तैयार ही न थे, पर न मालूम एक दिन में ही वे कितने बूढ़े हो गये थे । अब जिन्दगी उन्हें भारभूत लगने लगी थी। भगवान से जल्दी उठा लेने की प्रार्थनाएँ उनके दैनिक जीवन का अंग बन चुकी थीं । ४८ घर-द्वार, देश-काल सब - कछ वे ही थे और वैसे ही चल रहे थे; पर सामाजिक गतिविधियों पर तो मानो वज्रपात ही पड़ गया था । सब-कुछ वहीं का वहीं थम कर रह गया था। अब न मंदिरों में वह सफाई देखने में आती थी जो उनके जमाने में देखी जाती थी; और न पाठशाला की, औषधालय की सँभाल करनेवाला कोई था । धार्मिक पर्व जैसे आते, वैसे ही चले जाते; समाज में कोई उल्लास का वातावरण देखने को नहीं मिलता; उनके द्वारा जो स्फूर्ति, जो प्रेरणा अभी तक प्राप्त होती रही थी; न मालूम अब वह क्यों नहीं प्राप्त हो पा रही थी ? सेठजी की मानसिक स्थिति को देखकर घरवाले यद्यपि उनसे कुछ नहीं कहते; तथापि आपस में कानाफूसी अवश्य करते, जो कभी-कभी सेठजी के कानों में भी पड़ जाती थी । कोई कहता - " बड़े पण्डित बनते थे, पर मन पर काबू नहीं था । " व्यंग करता हुआ दूसरा कहता - "नहीं, भाई ! बात ऐसी नहीं है । वे कोई जानबूझ कर थोड़े ही ले गये थे कड़ा, वह तो उनकी जेब में बच्चे ने स्वयं डाल दिया था, बेचारों को जब पता चला तब तत्काल दे गये, नहीं तो ..... 21 कहते-कहते जब जोरदार ठहाका लगता और सब घरवाले उसका साथ देते तो सेठजी के नीचे से जमीन खिसकने को फिरती । फिर कोई कहता - "देखो, कैसी बात बनाई, इन्हें बात बनाने की भी तो अक्ल नहीं है और बनते हैं पण्डितराज । यह नहीं सोचा कि इस बात पर भी कोई विश्वास करेगा क्या ?" 16 दूसरा कहता 'क्या करते ? जब पचता नहीं दिखा, तो वापिस तो करना ही था, अन्यथा जेल की हवा न खानी पड़ती ?" - तीसरा कहता - " हवा तो दे देने पर भी खिला सकते थे हम; पर पिताजी का डर लगता है, अन्यथा सारी पण्डिताई निकाल देते । "

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