Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ जरा-सा अविवेक ] ४७ "यह कड़ा मेरी कोट की जेब में निकला है। लगता है बच्चा जब मेरे पास खेल रहा था, तब उसने मेरी जेब में हाथ डाला होगा और उसमें ही रह गया होगा। यह कड़ा आप सेठानीजी को दे दीजिए, जिससे उन्हें संतोष हो जाये और गृह-कलह समाप्त हो।" (७) सेठजी कड़ा देख व उनकी बात सुन हक्के-बक्के रह गये। उन्होंने कल्पना ही न की थी ऐसा भी हो सकता है। उनका दिल इस बात पर विश्वास करने को कतई तैयार न था। उनका माथा चकराने लगा। वे सोच रहे थे कि क्या यह सब सत्य है या मैं सपना देख रहा हूँ? वे मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि यह सब सपना ही साबित हो, सत्य नहीं। उन्हें कड़ा मिलने की रंचमात्र भी खुशी नहीं थी; अपितु एक ऐसा मित्र खो देने की असह्य वेदना हो रही थी, जिसके सामने चक्रवर्ती का वैभव भी तुच्छ था। यह आघात उनके लिए इतना बड़ा था कि जिसे वे बरदाश्त नहीं कर सकते थे। अच्छा ही हुआ कि वे एकदम बेहोश होकर गिर पड़े। पण्डितजी भी इस स्थिति का सामना करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे, पर सेठजी की बेहोशी ने उनका रास्ता साफ कर दिया और वे वहाँ से उठकर तत्काल नीची गर्दन किए हुए भारी हृदय से अपने घर की ओर चल दिये। उन्हें आशंका थी कि सेठजी के होश में आने पर कुछ अघटित भी घट सकता है। यद्यपि इस स्थिति में सेठजी को छोड़ने की वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे; पर जागृत विवेक ने उन्हें इसके लिए मजबूर कर दिया था। (८) दोनों का जीवन अब भी चल रहा था, पर उनके जीवन में अब कोई रस नहीं रह गया था। दोनों अपनी जिन्दा लाशों को निरन्तर ढोये चले जा रहे थे। जिन्दादिली और उत्साह न मालूम कहाँ चले गये थे? कल तक वे अपने को

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