Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ अक्षम्य अपराध अगाध पाण्डित्य के धनी मुनिराज श्रुतसागर ने जब बलि आदि मंत्रियों से हुए विवाद का समाचार सुनाया तो आचार्य अकंपन एकदम गम्भीर हो गये। जगत की प्रवृत्तियों से भलीभाँति परिचित आचार्यश्री के मुखमण्डल पर अनिष्ट की आशंका के चिह्न छिपे न रह सके । यद्यपि जबान से उन्होंने कुछ भी नहीं कहा; तथापि उनका मनोगत अव्यक्त नहीं रहा। सहज सरलता के धनी महात्माओं का कुछ भी तो गुप्त नहीं होता। यद्यपि कोई कुछ बोल नहीं रहा था; तथापि गम्भीर मौन पूरी तरह मुखरित था। शब्दों की भाषा से मौन की भाषा किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती, बस उसे समझने वाले चाहिये। चेहरे के भावों से ही मनोगत पढ़ लेने वाले श्रुतज्ञ श्रुतसागर को स्थिति की गम्भीरता समझते देर न लगी। आचार्यश्री के चिन्तित मुखमण्डल ने उन्हें भीतर से मथ डाला था; अत: वे अधिक देर तक चुप न रह सके। __ "अपराध क्षमा हो पूज्यपाद! अविवेकी अपराधी के लिए क्या प्रायश्चित है ? आज्ञा कीजिये।" ___ "बात प्रायश्चित की नहीं, संघ की सुरक्षा की है। ऐसा कौनसा दुष्कर्म है, जो अपमानित मानियों के लिए अकृत्य हो। जब मार्दव धर्म के धनी श्रुतसागर से भी दिगम्बरत्व का अपमान न सहा गया तो फिर मार्दव धर्म का नाम भी न जाननेवालों से क्या अपेक्षा की जा सकती है ? मानभंग की पीड़ा उन्हें चैन न लेने देगी। अपमानित मानी क्रोधित भुजंग एवं क्षुतातुर मृगराज से भी अधिक दुःसाहसी हो जाता है ।आज संघ खतरे में है।" - कहते-कहते आचार्यश्री और भी अधिक गम्भीर हो गये।

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