Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ जागृत विवेक ] (३) साधना के पक्के ऋषिराजों के समक्ष देवाङ्गनाओं की उपस्थिति में देर न लगी, पर वे सर्वाङ्गसुन्दर न थीं। एक के दाँत सामने को निकल रहे थे तो दूसरी एकाक्षी थी। उन्हें देख ऋषियुगल संकोच में पड़ गये। वे सोचने लगे - __ "आचार्यश्री ने तो कहा था कि सर्वाङ्गसुन्दर देवाङ्गनाओं के दर्शन होंगे, पर । कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है । क्यों न चलकर गुरुदेवश्री से ही जान लें? नहीं, नहीं; उन्होंने आते समय कहा था कि कहीं कुछ शंका पड़े तो मेरे पास भागे-भागे मत आना। 'तुम्हार आत्मा ही तुम्हारा वास्तविक गुरु है' - इस महामंत्र को याद रखना; अतः स्वयं ही इसके कारण की खोज करना चाहिए।" उन्होंने अपने-अपने मंत्रों का गहराई से निरीक्षण किया तो पाया कि एक मंत्र में एक अक्षर की कमी है और दूसरे में एक अक्षर अधिक है। वे एकबार फिर संकोच में पड़ गये। उनका अन्तर दुविधा में उलझ गया। वे सोचने लगे - ___ "क्या इन मंत्रों को अपने विवेक के आधार पर ठीक कर लिया जाये? वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध, गुरुपरम्परा से प्राप्त समृद्ध श्रुतपरम्परा के धनी आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त मंत्रों में सुधार करने का साहस यौवन से उत्पन्न दुस्साहस तो नहीं होगा?" गहरे विचार-मंथन के बाद दोनों ही युवा ऋषि स्वतंत्ररूप से स्वविवेकानुसार मंत्रों को शुद्ध कर लेने के निर्णय पर पहुँचे और ध्यानमग्न हो गये। सफलता विवेक के धनी कर्मठ बुद्धिमानों के चरण चूमती है। सर्वाङ्गसुन्दर देवाङ्गनाएँ उपस्थित हो कहने लगीं - ri "हम आपकी क्या सेवा कर सकती हैं ?" "कुछ नहीं; सेवकों का संग्रह और सेवा हमें अभीष्ट नहीं। हमारी आराधना का अभीष्ट तो आचार्यश्री की आज्ञा का पालन मात्र था।"

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