Book Title: Aap Kuch Bhi Kaho
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ [ आप कुछ भी कहो "कुछ नहीं, राजमाता की आज्ञा का पालन हो चुका है। आज भरत का भारत अखण्ड है।" "पर सम्राट का चित्त विभाजित.." "चित्त कोई जमीन नहीं, जिसे बल से, वैभव से, पुण्य-प्रताप से जीत लिया जाये। चित्त को जीत लेनेवालों को छह खण्डों की नहीं, अखण्ड आत्मा की प्राप्ति होती है।" ___ "तुम्हें क्या हो गया है ? ये कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो?" "मुझे क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं हुआ। ये बातें मात्र बहक नहीं हैं, परमसत्य हैं माँ ! अखण्ड आत्मा की उपलब्धि ही जीवन की सार्थकता ___ "तुम्हें पता है, तुम छह खण्डों को भोगने वाले प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हो?" "नहीं माँ नहीं, मुझे भी भ्रम था; पर जब मैं दिग्विजय के अवसर पर जगप्रसिद्ध शिला पर अपना नाम लिखने गया तो वह शिला उन चक्रवर्तियों के नामों से भरी पड़ी थी; जिन्होंने अब तक इस भरत के छह खण्डों को भोगा था। मुझे एक चक्रवर्ती का नाम मिटाकर अपना नाम लिखना पड़ा। तब मुझे पता चला कि मैं जिस वसुधा को अभुक्त समझ रहा था, वह उच्छिष्ट है; मैं अभुक्त भोजी नहीं, उच्छिष्ट भोजी हूँ। ___ नाम की अमरता की नश्वरता का ज्ञान भी मुझे उस समय ही हुआ। मैंने सोचा - क्या मेरा नाम यहाँ सदा ही लिखा रहेगा? नहीं, कदापि नहीं; भविष्य का कोई चक्रवर्ती इसीप्रकार आयोगा और मेरा नाम मिटाकर अपना नाम लिख जायेगा। माँ! मैं उच्छिष्ट भोजी हूँ, उच्छिष्ट भोजी।" राजमाता ने दृढ़ता से कहा - "नहीं, कदापि नहीं; मेरा भरत उच्छिष्ट भोजी नहीं हो सकता।"

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