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उदाहरण के लिए दृष्टान्त देखिए..... कि क्या कभी सूर्य अपने प्रकाश के बिना रहा है ? और ठीक उल्टा क्या कभी सूर्य का प्रकाश सूर्य के बिना रहा है ? जी नहीं, यह सनातन सिद्धान्त है । अतः सूर्य द्रव्य गुणी है और उसका प्रकाश गुण है। दोनों के बीच अभेद-संबंध है । ठीक इसी तरह ज्ञान गुण है और ज्ञानी आत्म द्रव्य गुणी है । वह कभी भी ज्ञान के बिना रह ही नहीं सकता है। सवाल ही खड़ा नहीं होता है। ऐसे ज्ञान गुण का धारक द्रव्य ही आत्मा है । इस द्रव्य के नामकरण के समय चाहे आत्मा नाम दो, या चाहे चेतन नाम दो बात एक ही है। और वही देहधारी चेतन जीव के रूप में संसार के व्यवहार आए तब भी यह जीव नाम भी उसी का समानार्थक पर्यायवाची नाम बनता है । अतः ज्ञान चेतन का गुण है । जो चेतना शक्ति के रूप में चेतन द्रव्य के साथ रहता है । लेकिन स्वयं बन बैठे तथाकथित ध्यान के गुरु या भगवान जो वर्तमान काल में अपना ध्यानी और योगी के नाम पर वर्चस्व जमा बैठे हैं वे सही अर्थ में तो भोली-भाली अनभिज्ञ प्रजा को
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राह कर रहे हैं । अरे! ज्ञान कभी जड का गुण हो ही नहीं सकता है । उसको जड द्रव्य का गुण मान लेना इससे बडी मूर्खता और क्या हो सकती है ? तो तो फिर शरीरादि अनेक अनन्त वस्तुएं जड द्रव्य साधन हैं। उनमें भी ज्ञान होना ही चाहिए। लेकिन क्या यह प्रत्यक्ष सिद्ध है ? संभव ही नहीं है ।
मन के ही शुद्ध वास्तविक सत्य स्वरूप को जानते - पहचानते नहीं है, और आत्मा को तो मानना ही नहीं है, अस्तित्व ही उडा दिया है और ऐसे ध्यान-योग के गुरू बन बैठे हैं । आत्मा के स्वरूप का आरोपण मन पर कर देना अर्थात् मन को ही आत्मा के अर्थ मं मानना और आत्मा के अस्तित्व को उड़ा देना ऐसी बालचेष्टा करके जगत् को उल्लू बनाने का गोरखधंधा करना यह कितना हीन कृत्य है ।
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दूसरी तरफ ध्यान भी कैसा है ? प्रक्रिया कैसी है ? मात्र हठयोग की थोडी सी क्रिया को लेकर श्वास को नासाग्र भाग से आते-जाते देखते रहो, आनापान के देखते रहने मात्र से ध्यान हो गया । बस, उसीसे आत्म ज्ञान - ब्रह्म ज्ञान हो जाएगा, और उसकी अनुभूति भी हो जाएगी ऐसा मात्र कथन करना है। लेकिन सत्य तो सर्वथा भिन्न है । क्या मात्र देह की उत्पन्न होती हुई संवेदनाओं को देखते रहने से ब्रह्मज्ञान हो जाएगा ? क्या भूतकाल के सेंकडों वर्षों में भी कभी किसी को हुआ है ? आज भी १० - १५ - १८ - २० वर्षों से विपश्यना पद्धति का ध्यान करनेवाले तथाकथित ध्यानियों को मिलते हैं, देखते हैं .. तो उनमें अंश मात्र भी सत्य ज्ञान प्रगट हुआ दिखाई नहीं देता है । वे भी अपनी जो उनको सीखाई गई मान्यता है उसी पर रूढ बने हुए हैं। बस, वही उनका मानस है । काश ! कितना अफसोस ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा