Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 12
________________ पीना भी है । लेकिन पानी निकालने की प्रक्रिया आनी तो चाहिए। उस पद्धति की जानकारी तो होनी ही चाहिए। नहीं तो वह पानी कैसे निकाल पाएगा? गहरे कुंए की गहराई तक अन्दर कुछ साधन रस्सी से कैसे भी पहुँचाना ही पडेगा। तभी तो भरकर पानी बाहर निकाल पाएगा। ठीक इसी तरह आत्मारूपी कुंए में से ज्ञानरूपी पानी निकालना हो तो क्या करना? कैसा ध्यान करना? कैसे ध्यान करना? इसका भी ज्ञान तो होना ही चाहिए। अतः समस्त जगत् के सर्व जीवों के लिए राजमार्ग यह है कि प्रथम ज्ञान प्राप्त करना। तत्पश्चात् उसे सही सत्य सम्यग् ज्ञान प्राप्त होने के बाद ध्यान में जाना चाहिए । तीर्थंकरों का अनुकरण करने मात्र से ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। ऐसी विचारधारावाले कभी भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर पाएंगे। यह भ्रमणा-भ्रमणा ही रह जाएगी। आज के वर्तमानकाल में कई ऐसे अपने आप को गुरु या भगवान कहलानेवाले निकल पड़े हैं जो लोगों को उल्टी ही प्रक्रिया सिखाते हैं । वे उल्टी दिशा में ले जाते हैं। जिससे जीवों को ज्ञान और ध्यान दोनों ही प्राप्त होने संभव नहीं रहेगा। क्योंकि वे लोगों के दिमाग में बिल्कुल ही विपरीत भर रहे हैं कि.... बस, पहले से ही सीधा ध्यान करो, ज्ञान पढने की चिन्ता मत करो । ज्ञान की कोई पोथी पुस्तक ग्रन्थ-शास्त्र मत पढो । यह सब भाडूती ज्ञान है । दूसरों का ज्ञान उधार मत लो। अपनी अनुभूति के बल पर ज्ञान प्राप्त करो। आप स्वयं ध्यान करो और अन्दर की आत्मा की गहराई में प्रवेश करो और अन्दर ही अन्दर अनुभूति करो। बस, जो ज्ञान आ जाए वही सच्चा-सही ज्ञान है। ... आपको एक बात जानकर और ज्यादा आश्चर्य होगा, तथा ऐसे बेचारे बन बैठे ध्यान के गुरु और भगवान पर हंसना आएगा कि.... आत्मा मानने की कोई जरूरत ही नहीं है । ज्ञान का स्रोत भी अन्दर ही मानते हैं और मन जो जड साधन मात्र है उसको ज्ञान का आधारभूत स्रोत मानते हैं । ज्ञान का मूलभूत खजाना मानते हैं । और दूसरी तरफ आत्मा का तो अस्तित्व मानने के लिए तैयार ही नहीं है । ज्ञान चेतन का गुण है । चेतना स्वरूप है फिर भी उसे मन पर आरोपित कर दिया । मन का गुण कहकर मन में से ज्ञान निकालने के लिए ध्यान सिखाने की प्रक्रिया सिखाई जा रही है । दूसरी तरफ ज्ञान को तो मानना है लेकिन ज्ञान के आधारभूत द्रव्य आत्मा को ही न मानना । इतनी भी समझ उनको नहीं है कि... गुण और गुणी का अभेद संबंध होता है । गुण कभी भी गुणी (द्रव्य) के बिना रह ही नहीं सकता है । और ठीक इससे विपरीत गुणीद्रव्य भी कभी अपने गुण के बिना रह ही नहीं सकता है । अस्तित्व ही एक दूसरे के कारण है । आखिर गुणी द्रव्य है ही क्या? गुणों से ही बने हुए समूहात्मक पिण्ड का नाम गुणी द्रव्य है । यह समूचे ब्रह्माण्ड का नित्य नियम है। ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास" ९७९

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