Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 11
________________ स्थिरता लाने के लिए तो प्रमाद के त्यागपूर्वक अप्रमत्त भाव की कक्षा ही उपयोगी तथा उपकारी सिद्ध होती है । मन को चंचल-चपल-अस्थिर बनानेवाले प्रमाद के ही प्रकार हैं। ये प्रकार उपस्थित होकर मन को ज्यादा विचलित कर देते हैं। अतः स्थिरता नहीं अस्थिरता ही हावी हो जाती है । इसके लिए प्रमाद के प्रकारों का सर्वथा सदंतर त्याग करके अप्रमत्त बनने से सही सच्ची स्थिरता आएगी। यही मन का आसन स्थिर करने में सहायक सिद्ध होगी। ज्ञान से ध्यान या ध्यान से ज्ञान? ___ ज्ञान ध्यानजन्य है या, ध्यान ज्ञानजन्य है? दोनों में से कौन किसका कारण बनता है ? २४ ही तीर्थंकर जैसे महान शलाका पुरुषों को गर्भ में ही, १) मति, २) श्रुत, तथा ३) अवधि ये तीनों ज्ञान संपूर्ण थे । अतः उन्हें जन्म लेने के पश्चात् जीवन काल में स्कूल जाना या किसी के पास शास्त्रादि पढने की आवश्यकता ही नहीं रहती है । बस, सीधे ही दीक्षा लेने के समय उन्हें चौथा मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है । कुल पाँच ही ज्ञान होते हैं और उसमें से ४ ज्ञान तो प्राप्त हो चुके हैं । अतः वे तो पढे-पढाए सीखे हुए ज्ञान संपन्न ही है और ये चारों ज्ञान संपूर्ण हैं । अब तो सिर्फ सर्वज्ञता के लिए ही उनको पुरुषार्थ करना है । सर्वज्ञता जो लोकालोक व्यापी समस्त अनन्त द्रव्यों की अनन्तानन्त पर्यायों का भी ज्ञान प्राप्त करना है, अनन्तानन्त गुणों का भी ज्ञान प्राप्त करना है। अतः ऐसे अनन्तज्ञान को प्राप्त करने के लिए कोई ऐसा ग्रन्थ, शास्त्र, या पुस्तकादि नहीं है कि जिसे पढकर अनन्तज्ञान को प्राप्त किया जा सके । जी नहीं । ऐसे कोई ग्रन्थ-शास्त्रादि है नहीं और होते ही नहीं है। आत्मा के अपने ज्ञान की गहराई भी काफी ज्यादा है। अतः स्वात्मज्ञान प्राप्त करना भी कोई आसान खेल नहीं है । सामान्य बात नहीं है । ऐसी स्थिति में मात्र एक ही विकल्प उनके पास बचता है अन्तरात्मा में प्रवेश करना और ध्यान साधना के बल पर ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय करना तथा ज्ञान प्राप्त करना । जी हाँ, यह तो निश्चित ही है कि आत्मा ही ज्ञान का खजाना है। ज्ञान तो आत्मा में से ही प्रगट होता है। और ध्यान उसे बाहर निकालने की अद्भुत अनोखी प्रक्रिया है । पद्धति है । परन्तु यदि ध्यान ही करना नहीं आया, या ध्यान पद्धति ही सर्वथा गलत या विपरीत रही तो क्या प्राप्त होगा? जी नहीं। कुछ भी नहीं । ऊपर से लेने के बजाय देने पड जाएंगे। दूसरे पक्ष का विचार करें। ध्यान का, ध्यान पद्धति एवं प्रक्रिया का भी सही ज्ञान तो होना ही चाहिए कि नहीं? अत्यन्त आवश्यक है । जैसे कुंए में पानी है और प्यासे को ९७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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