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THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
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-The TFIC Team.
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पाहुडदोहा चयनिका
डॉ. कमलचन्द सोगाणी (सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र)
परामर्शदाता
अपभ्रंश साहित्य अकादमी जयपुर
प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
श्री सन्मति ★
하
पुस्न भनॉग ★
जगप
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0 प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या सस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
प्राप्ति स्थान 1. जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी-322 220 2. अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसिया भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर 302 004
D प्रथम वार, 1991
0 मूल्य 13.00
2 मुद्रक
मदरलैंड प्रिटिंग प्रेस गीता भवन, प्रादर्शनगर, जयपुर।
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श्री गोपीचन्दजी सोगाणी
( १९०६ - १९६२)
श्रीमती मैना देवी सोगाणी
( १९१२ - १९६३)
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परिवार-परिचय
स्वर्गीय श्री जमनालाल जी सोगाणी एव श्रीमती जडाव वाई सोगाणी के पुत्र श्री गोपीचन्द जी सोगाणी का स्वर्गवास 56 वर्ष की आयु मे दिनाक 28-10-62 को हो गया था। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मैना देवी सोगाणी, (पुत्री श्री लादूरामजी अजमेरा (वकील) एव श्रीमती वच्चा बाई अजमेरा) का स्वर्गवास 81 वर्ष की मायु मे 9-1-93 को हुआ।
श्री गोपीचन्दजी सोगाणी (वी ए., एल एल बी) (जन्म सन् 23 दिस 1906) के तीन भाई (श्री गुलाबचन्दजी, श्री कपूरचन्दजी एव श्री अनूपचन्दजी) व दो बहिनो मे एक श्रीमती रतन वाई थी व दूसरी श्रीमती लल्ली बाई है। श्री गोपीचन्दजी ने कुछ समय तक वकालत की और फिर सरकारी सेवा मे प्रवेश किया। वे इन्सपेक्टर रजिस्ट्रेशन एण्ड स्टैम्पस जयपुर के पद से सेवानिवृत्त हुए। वे सरल स्वभावी एव ईमानदार व्यक्ति थे
और सदैव अपने कुटुम्बीजनो को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहते थे। उन्हें मास्टर मोतीलालजी सघी (सस्थापक, श्री सन्मति पुस्तकालय, जयपुर) पर वडी श्रद्धा थी। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मैना देवी सोगाणी (जन्म 19 जुलाई 1912) के एक भाई, श्री गोपीचन्दजी अजमेरा, एडवोकेट है व दो बहिनें (श्रीमती रतन वाई सेठी एव श्रीमती छोटी वाई पाण्ड्या) थी। श्रीमती मैना देवी सयमी, स्वाध्यायी, स्वावलम्बी व स्वाभिमानी महिला थी। वे परिश्रमी, कार्यकुशल व निर्भीक थी। उन्होने 30 वर्ष तक एक समय ही भोजन किया । आहार की शुद्धता का वे बहुत ध्यान रखती थी। मरण का आभास होने पर उन्होने आहार-पानी का त्याग कर समतापूर्वक शरीर छोडा।
उनके तीन पुत्र एव एक पुत्री हैं - पुत्र-1 डॉ. कमलचन्द सोगाणी
धर्मपत्नी श्रीमती कमला देवी सोगाणी एम ए, बी एससी., पीएच डी. (पुत्री स्व श्री उमरावमलजी ठोलिया, • सेवानिवृत्त प्रोफेसर दर्शनशास्त्र एव श्रीमती पालकीवाई ठोलिया,
सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर जयपुर निवासी) • ट्रस्टी श्री सन्मति पुस्तकालय, जयपुर • ट्रस्टी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी • सयोजक, अपभ्रश साहित्य अकादमी, जयपुर एव
जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
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दोपचा मोगानी एम की वो एन नियत वरिष्ठ निनित्ता अधिकारी मौर प्रन्पतान, व्यावर (राज)
व पुत्र
1 श्री नीतिन सोगाणी
वो एम-मी
वरतानिया फाइनेन्स
प्रानेट निमिटेड, मद्रास साठी,
मद्राम
पुत्र-3 श्री पवन कुमार सोगानी
पुत्र
श्री रवि सोगाणी
वी. एन. सी. स्टॉक एण्ड शेयर
श्रीमती नीलू सोगागो
पुत्री श्री गिरीलालजी लुहाडिया एव भोमती चन्द्रा देवी लुहाडिया (गाम दिवामी)
धर्मपत्नी श्रीमती सुनीता सोगानो पुत्री स्व सुरेन्द्रनाथजी सेठी एव स्व रतनदेवी ( कोटा निवासी)
नोकर, मद्रास
स्टॉक एक्सचेंज,
मद्रास
मैकेनिल इन्जीनियरिंग डिप्लोमा मेन्युपंक्चरर एण्ड गप्लायर पोर्ट रेटमेड गारमेन्ट्स
पुत्री-दामाद
श्रीमती नीता पाटनी
ची ए
होलसेर्ल्स ऑफ बलारपुर इण्डस्ट्रीज लिमिटेड
श्री विजय पाटनी वी एम-सी
पुत्र श्री कुशलचन्द पाटनी
एव श्रीमती कमला पाटनी ( जयपुर निवासी ) डिस्ट्रीब्यूटर्स
,1
1 मोदी अलकलीज एण्ड केमीकल्स लि. 2 बलारपुर इण्डस्ट्रीज लिमिटेड 3 पंजाब नेशनल फर्टीलाईजर एण्ड केमीकल्स लिमिटेड
धर्मपत्नी श्रीमती प्राशा सोगाणी (पुत्री श्री महावीर बडजात्या एव श्रीमती शान्ति बडजात्या, जोवनेर निवासी) चीफ इन्सपेक्टर, बायलर,
जयपुर - कार्यालय मे सेवारत
पुत्र
श्री सगम सोगाणी
विद्यार्थी बी कॉम ( श्रॉनर्स) श्रन्तिम वर्ष मैक्चरर एण्ड सप्लायर एक्सपोर्ट रेडिमेड गारमेन्ट्स
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पुत्री-4 श्रीमती विमला सोनी
दामाद, श्री सुरेन्द्र कुमार सोनी एम एम-सी एव वरिष्ठ स्टेटिस्टिशियन (पुत्र स्व श्री कपूरचन्दजी सोनी एव श्रीमती गंद बाई मोनी, जयपुर निवासी) • जनरल मेनेजर हुकुमचन्द जूट मिल्म
हाजी नगर, कलकत्ता • टेक्निकल कनसल्टेन्ट क यूनाइटेड नेशन्स इण्डस्ट्रियल डवलपमेन्ट
आर्गेनाइजेशन ख एशियन डवलपमैन्ट बैंक पुत्री व दामाद
पा
श्री अमित सोनी विद्यार्थी बी कॉम. (प्रॉनर्स) अन्तिम वर्ष
श्रीमती वीनू गोधा वी ए श्री प्रवीण चन्द गोधा (पुत्र, श्री पदमचन्दजी गोधा एव श्रीमती कमलादेवी गोधा, अजमेर निवासी) फैलो चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट
* श्री गमति *
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स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये
एवं
সন্ত ভাঁ খ্রীছালাল তীর
___को
सादर समर्पित
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अनुक्रमणिका
प्रकाशकीय
प्रस्तावना । पाहुडदोहा चयनिका के दोहे एव हिन्दी अनुवाद 2 व्याकरणिक विश्लेषण एव शब्दार्थ
सकेत-सूची + पाहुडदोहा एव चयनिका दोहाक्रम 5 सहायक पुस्तकें एव कोश
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प्रकाशकीय
विश्व मे दो ही प्रकार के तत्व हैं - ( 1 ) चेतन और (2) जड । चेतन तत्व है आत्मा / जीव, शेष समस्त पदार्थ / वस्तुए जड हैं । चेतन और जड दोनो स्वरूपत विल्कुल भिन्न, पृथक्-पृथक् तत्व हैं, किन्तु चेतन जड पदार्थो से अपने श्रापको जोडे रखता है, बांधे रखता है, यहा तक कि उसको अपना ही समझने लगता है । इस प्रकार 'पर' के प्रति लगाव / अपनत्व / ममत्व / मोह से दुख उत्पन्न होता है । पर-पदार्थ को अपना समझने की भ्राति/ भ्रातधारणा ही दुख का मूल है ।
जगत् का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुख से डरता है । इसलिए तीर्थंकर ऋषि-मुनि त्यागी तपस्वी अपने अनुभवो के आधार पर प्राणियो को समझाते रहे हैं - वास्तविक सुख 'पर' से अपने को अलग पहचानने-समझने, जानने-मानने मे है, यह ही आत्मज्ञान है । इन्द्रिय-सुख शाश्वत नही है, सच्चा सुख इन्द्रियो पर विजय और आत्मध्यान मे ही मिलता है, यह सुख चिरस्थायी और कल्याणकारी है । आत्मसाधक आचार्यों ने उपभोग की अपेक्षा त्याग और कर्मकाण्ड की अपेक्षा स्वानुभव का माहात्म्य बताया है । सभी धर्मों मे समय-समय पर, अलग-अलग रूपो मे, अनेक भाषात्रो मे, नई-नई शब्दावलियो मे इन्ही तथ्यो की घोषणा की गई है ।
दमवी शताब्दी के कवि मुनि रामसिंह ने तत्कालीन लोकभापा अपभ्रंश मे पाहुड - दोहा की रचना की । पाहुड उपहार भेंट, पाहुडदोहा = दोहो का उपहार | सामान्यजन के लाभार्थं उन्होने यह 'दोहो का उपहार' दिया । पाहुडदोहा उनकी एकमात्र उपलब्ध कृति है । मुनि रामसिंह राजस्थान प्रान्त के कवि थे । डॉ हीरालाल जैन ने पाहुडदोहा की प्रस्तावना मे लिखा है - " ग्रन्थ मे 'करहाऊंड' की उपमा बहुत
ई है तथा भाषा मे मी 'राजस्थानी - हिन्दी' के प्राचीन मुहावरे दिखाई देते हैं । इससे श्रनुमान होता है कि ग्रन्थकार राजपुताना के थे ।" मुनि रामसिंह आध्यात्मिक रहस्यवादी धारा के प्रमुख कवियो मे से एक हैं । वे साम्प्रदायिकता, सकीर्ण विचारचारा, वाह्याडम्बर की अपेक्षा आत्मज्ञान के प्रवल समर्थक व परममाधक हैं | आचार्य
पाहुडदोहा चयनिका ]
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कुन्दकुन्द, कवि योगीन्दु जैसे आत्मसाधको के क्रम मे ही मुनि रामसिंह की इस रचना मे आत्मानुभव की महत्ता, धर्म के नाम पर फैले क्रियाकाड, अन्धविश्वासो की निस्मारता / योयेपन/भर्त्सना के स्वर मुखरित है । प्रस्तुत रचना मे उन्होने अपने गूढ ग्रात्मिक अनुभवो को सर्वजन हिताय निवद्ध किया है । उन्होने कहा - आत्मशुद्धि के लिए आवश्यक्ता है केवल राग-द्वेप-मोह की प्रवृत्तियो को रोकने और अपने-पराये / स्व-पर / जड-चेतन की पहचान की
अम्मिए जो परु सो जि परु परु अप्पाण रग होइ । हउ उज्भउ सो उन्चरइ वलिवि रंग जोवइ तोइ ॥
- ग्रहो । जो पर है वह पर है । परवस्तु आत्मा नही होती है । मैं जला दिया जाता हूँ, (वह) आत्मा शेष रहता है, तव ( भी वह ) मुडकर भी नही देखता ।
पापरहूँ मे
P
-- श्रात्मा और पर का मिलाप ( कभी ) नही होता ।
:
इसलिए
जोइय भिण्ड काय तु देह
प्राणु ।
तू तेरी आत्मा को देह से
भिन्न ध्यान कर |
हे योगी उन्होने कहा—–श्रात्मज्ञान मे रहित क्रियाकाड करणरहित भूसा कूटने के समान है ।
11 ]
पाहुडदोहा के इन्ही भावो से श्रोतप्रोत 222 दोहो मे से विशिष्ट, सरल, सर्वोपयोगी 92 दोहो का सकलन है यह 'पाहुडदोहा चयनिका । इनका चयन सकलन, विश्लेपण किया है डॉ कमलचन्द जी मोगारणी, मेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनविभाग, सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर, ने । 'चयनिका' ग्रन्थ के मूलहार्द को मक्षिप्त रूप मे प्रस्तुत करने की डॉ सोगारणी की विशिष्ट शैली, एक अलग पहचान है । इस चयनिका मे मूलदोहा, उसका व्याकरणिक विश्लेषण और उसी पर आधारित हिन्दी अर्थ व शब्दार्थ दिए गए हैं जिससे पाठक अपभ्रंश व्याकरण और रचनाकार की मौलिकता दोनो को ही समझ मके । व्याकरणिक विश्लेषण की यह पद्धति डॉ मोगारणी की मौलिक देन है ।
[ पाहुडदोहा चयनिका
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इस 'चयनिका' के लिए हम डॉ सोगाणी के प्रामारी है। पुस्तकप्रकाशन मे सहयोगी कार्यकर्ता भी धन्यवादाह है। मुद्रण के लिए मदरलैण्ड प्रिंटिंग प्रेस, जयपुर के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित है ।
महावीर जयन्ती, चैत्र शुक्ला 13, वी. नि. स 2517
28-3-1991
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
सयोजक जनविद्या सस्थान समिति,
जयपुर
श्री सन्मति पुस्तकालय -+ इन्दियो । गम्ता :
जोड़री वा-1 बयपुर-३ (मजस्थान)
[
1
पाहुडदोहा चयनिका ]
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प्रस्तावना यह इतिहास-सिद्ध बात है कि मनुष्य हजारो वर्षों से शान्ति की खोज मे प्रयत्नशील रहा है। इसो के परिणामस्वरूप वह अध्यात्म के शिखर पर पहुचने मे सफल हुआ है। जैसे आयुर्विज्ञान ने विभिन्न शारीरिक व मानसिक रोगो के कारणो की खोज करके उनको दूर करने के उपाय किए है उसी प्रकार अध्यात्म ने मानवीय अशान्ति के कारणो को खोजकर उनसे बचने के लिए मनुष्य को प्रेरित किया है। जिस ससार मे मनुष्य रहता है वहाँ विभिन्न वस्तुओ और विभिन्न मनुष्यो से उसका सम्बन्ध आवश्यक होता है । जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नही जहाँ वह वस्तुप्रो के उपयोग और मनुष्यो के सहयोग के बिना चल सकता हो । उसकी तृप्ति इसी उपयोग और सहयोग से होती है । यह तृप्ति मनुष्य के जीवन का स्वीकारात्मक पक्ष है। किन्तु इस तृप्ति के पूर्व जहाँ मनुष्य को आकुलता-व्याकुलता रहती है वहा उसको इसके पश्चात उसमे अस्थायित्व का भान होता रहता है । यह प्रस्थायित्व बार-बार ताप्ति की आकाक्षा को जन्म देता है और इसी से वस्तु और व्यक्ति के प्रति आसक्ति का आविर्भाव होता है तथा मानसिक अशान्ति उत्पन्न होती है । इस तरह सामान्य मनुष्य विभिन्न प्रकार की आसक्तियो के घेरे मे ही जीता है । मुनि रामसिंह ने पाहुडदोहा मे ऐसे सूत्र दिए है जिससे व्यक्ति आसक्तियो के घेरे से बाहर निकल सके और स्थायी शान्ति की ओर अग्रसर हो सके ।
मनुष्य जव अपने इर्द-गिर्द की वस्तुयो को देखता है और जब वह मनुष्यो के सम्पर्क मे आता है तो एक बात स्पष्ट रूप से उसे समझ मे
पाहुडदोहा के रचनाकार मुनि रामसिंह हैं । डॉ हीरालाल जैन के अनुसार मुनि रामसिंह राजस्थान के प्रतीत होते है। इनका समय 1000 ईस्वी माना गया है । पाहुडदोहा 'अपभ्रश' भापा मे रचित है। इसमे अपभ्रश के 222 दोहे है। इनमे से ही हमने 92 दोहो का चयन पाहुडदोहा चयनिका के अन्तर्गत किया है। मुनि रामसिंह ने अध्यात्मप्रधान शैली मे यह ग्रन्थ लिखा है। इसी का मक्षिप्त विवेचन हमने प्रस्तावना मे किया है।
iv ]
[ पाहुटदोहा चयनिका
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आने लगती है कि यौवन, जीवन, धन, घर और सम्पदा जल की एक बूंद की तरह अस्थिर हैं। मृत्यु के आने पर किसी को काई नही बचा सकता । देह मरणशील है । देह मे बुढापा और मृत्यु दोनो होते हैं । देह मे भिन्न-भिन्न प्राकृतिया होती हैं । रोग भी देह मे ही होते है (22)। इस तरह से वस्तुप्रो की अनित्यता और जीवन की अस्थिरता की अनुभूति के कारण वह अपने आप से प्रश्न पूछता है--क्या यहां कुछ नित्य है ? क्या यहाँ कुछ स्थिर है, अमर है ? इस प्रश्न के उत्तर की खोज मे वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है (45)।
इस ज्ञान के फलस्वरूप उसमे आत्म-तत्व के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। पाहुडदोहा का कथन है कि आध्यात्मिक ज्ञान के बिना व्यक्ति स्थिर आत्म-तत्व को नही समझ सकता है (16) । मुनि रामसिंह ऐसे बहुत शब्दो के ज्ञान को (68), बहत शास्त्रो के अभ्यास का निरर्थक मानते हैं जो अमरता, नित्यता के प्रति आस्था उत्पन्न न कर सके (54, 68, 69, 70) । व्याख्यान देते हुए ज्ञानी ने यदि आत्मा मे चित्त नही दिया तो वह करणो को छोडकर भूसा ही इकट्ठा कर रहा है (47, 48) । अत्यधिक बाहरी जानकारी होते हुए भी यदि व्यक्ति प्रात्म-बोध-रहित बना रहता है तो यह बाह्य जानकारी उसके जीवन मे उचित परिणाम उत्पन्न करने में असमर्थ रहती है (46)। वह व्यक्ति जो अपने अन्दर स्थित शान्त और शुद्ध प्रात्मा को नहीं देखता और उसे तीर्थों और देवालयो मे खोजता है वह अज्ञानी है (52, 85,86)। यह सच है कि बाहरी वस्तुओ की अनित्यता तो आसानी से अनुभव मे आ जाती है किन्तु देह का आत्मा से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण देह की अनित्यता को समझना कठिन रहता है और इस कारण से मरण-भय से छुटकारा पाना कठिन हो जाता है (21)। इसलिए पाहुडदोहा का समझाना है कि आत्मा और अन्य का मिलाप कभी नही होता है, वह क्या करेगा जिसके पास अपने आपका देह से अलग करने की कला नही है (53) ? पाहुडदोहा ने देह से भिन्न आत्मा मे रुचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार से हमे समझाया है, जैसे--जगत की शोभा यात्मा को छोडकर जो लोग 'पर' मे टिकते हैं वे मिथ्यादृष्टि है (38) । पाहुडदोहा ने शरीर के विशेषणो को प्रात्मा मे नकारा है और कहा है कि आत्मा तो
पाहुडदोहा चयनिका ]
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ज्ञानात्मक स्वरूप है, अजर-अमर है ( 17 से 23 ) । जिसके द्वारा श्रात्मा निज देह से भिन्न नही जाना गया है वह अघा है, वह किस प्रकार दूसरे अधो को मार्ग दिखलायेगा ( 71 ) । बहुत अटपट कहने से क्या लाभ है ? देह आत्मा नही है, हे योगी ! देह से भिन्न ज्ञानमय आत्मा है, वह तू है (79) । जिसके हृदय मे जन्म मरण से रहित दिव्य श्रात्मा निवास नही करती है, वह किस प्रकार श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करेगा (83) ? तू चाहे शरीर का उपलेपन कर, चाहे घी, तेल भादि लगा. चाहे सुमधुर प्रहार उसको खिला और चाहे उसके लिए और भी नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर किन्तु देह के लिए किया गया उपकार सव ही व्यर्थ हुआ है, जिस प्रकार दुर्जन के प्रति किया गया उपकार व्यर्थ जाता है ( 12 ) । जैसे प्राणियो के लिए झोपडा होता है वैसे ही जीव के लिए काय होती है, वहाँ ही प्राणपति आत्मा रहता है, उसमे ही मन लगा ।
इसलिए हे योगी ।
शान्ति-साधना की भूमिका
शान्ति की साधना के लिए आसक्तियों के घेरे से बाहर निकलना श्रावश्यक है । 1 इसके लिए सर्वप्रथम लक्ष्य के प्रति दृढता अनिवार्य है (62) | पाहुडदोहा इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि लक्ष्य के प्रति यद्यपि मन को रोका जाता है, पर वह आदत के वशीभूत होने के कारण आत्मा की धारणा न करके 'पर' की ओर चला जाता है ( 64 ) । अत लक्ष्य के प्रति समर्पण अति प्रावश्यक है जिससे मन धीरे-धीरे 'पर' की ओर जाने की अपनी कुटेव को छोड़ दे । 2. लक्ष्य के प्रति दृढता के साथ साधक कुसंगति का त्याग करदे । सगति का व्यक्ति के विचारो, भावनाओ और चारित्र पर अत्यधिक प्रभाव पडता है । कुसगति से खोटी आसक्तिया पनपती है । व्यक्ति इनके कारण व्यसनो मे, दुराचरण मे लग जाता है और अच्छे विचारो से दूर होता चला जाता है । पाहुडदोहा का यह विश्वास उचिन प्रतीत हाता है कि यदि भले लोग भी दुराचारियो की संगति करते है तो उनके गुरण भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाते है (81) । इसका कारण यह मालूम होता है साथ रहता है उनके साथ तादात्म्य करता चलता है और इससे उनके गुण-दोष ग्रहण कर लेता है । ग्रत व्यमनी, दुराचारी व दुष्ट लोगो की
कि व्यक्ति जिनके
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VI }
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सगति दृढतापूर्वक छोड देनी चाहिए (81)। उनकी सगति की जानी चाहिए जो 'रसो व रूपो' मे आसक्त नही है (55,73) । ऐसे लोगो को ही मित्र की कोटि मे रखा जाना चाहिए (73) 13 कुसगति के त्याग के पश्चात ही साधक लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए मानसिक तैयारी करे । साधक घर, नौकर-चाकर, शरीर व इच्छित वस्तुप्रो को अपनी न समझे (7)। ये सभी वस्तुए प्रात्मा से अन्य हैं और कर्मों से उत्पन्न हैं अतः नष्ट होनेवाली और बनावटी हैं (9, 10)। वह विचार करे कि जगत धन्धे मे उलझा हुआ है और ज्ञानरहित होकर हिंसादि कर्मों को करता है । वह आत्मा के विषय मे एक क्षण भी विचार नही करता है, यह स्थिति दुःखदायी है जिससे बचा जाना चाहिए (6) । सदुपदेशो को ग्रहण करने के लिए मन चिंतारहित होना चाहिए (27)। निश्चिन्तता मे ही मन की एकाग्रता हो पाती है और सदुपदेश ग्रहण करने की भूमिका बनती है । साधक विचार करे कि ज्ञानमय आत्मा को छोडकर सभी कुछ कर्म-कृत है (23-24)। अतःपर वस्तु का मनन उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति मे बाधक है (40) ।
साधना का मार्ग
आत्मा मे रुचि और मानसिक तैयारी से ही साधक सयम-मार्ग पर चलने के लिए योग्य बनता है (62)। इन्द्रिय-सयम साधना का क्रियास्मक रूप है । पाहुडदोहा का कथन है कि इन्द्रिय-विषयो मे रमण न किया जाय (50) । इन्द्रिय-विषय-सुख दो दिन के हैं, फिर दुखो का क्रम शुरू हो जाता है । हे जीव । तू अपने कधे पर कुल्हाडी मत चला (11)। हे मनुष्य । इन्द्रिय-विषयो का सेवन करने से तो तू दुखो का हो साधक होता है. इसलिए तू निरन्तर जलता है, जैसे घो से अग्नि जलता है (66) । पाहुडदोहा का कहना है कि यदि इन्द्रियो का प्रसार
रोका गया है तो यही परमार्थ है (85) | चित्त की निर्मलता साधना के .लिए आवश्यक है इसके विना बाहरी तप व्यर्थ है, (35) । अन्याय न करना और अहिंसा का पालन-इन दो सद्गुणो के साधक के जीवन में प्रविष्ट होने पर साधना सामाजिक आयाम ग्रहण कर लेती है और प्रशमनीय हो जाती है (78) । साधना में ध्यान का महत्व सर्वोपरि है। जो व्यक्ति निर्मल ध्यान मे ठहर जाता है वह दूसरे पदार्थों के साथ
पाहुडदोहाचयनिका ]
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क्रीडा ही करता है. उसमे आसक्त नहीं होता है (61)। ध्यान की शक्ति से व्यक्ति हर्ष और विपाद से परे हो जाता है (28)। ऐसा व्यक्ति ही समतावान कहलाता है । साधना की पूर्णता समतावान बनने मे है (1)
चयनिका के उपर्युक्त विषय से स्पष्ट है कि पाहुडदोहा मे आसक्ति के घर से निकलने के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन पाठको के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। दोहो के हिन्दी अनुवाद को मूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढने से ही शब्दो की विभक्तियॉ एव उनके अर्थ समझ मे आ जावे | अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रहो है । कहा तक सफलता मिली है इसको तो पाठक ही बता सकेंगे । अनुवाद के अतिरिक्त दोहो का व्याकरणिक विश्लेषण व शब्दार्थ भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण मे जिन सकेतो का प्रयोग किया गया है उनको सकेत-सूची मे देखकर समझा जा सकता है। यह प्राशा की जाती है कि इससे अपभ्रश को व्यवस्थितरूप में सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विविध नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्वविदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत दोहे, उनके व्याकरणिक विश्लेषण एव शब्दार्थ से व्याकरण के साथ-साथ शब्दो के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। शब्दो की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनो ही भाषा सीखने के आधार होते है। अनुवाद एव व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठको के समक्ष है । पाठको के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होगे। आभार ___पाहुडदोहा चयनिका के लिए हमने डा हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित पाहडदोहा का उपयोग किया है। इसके लिए मैं स्व डा. हीरालाल जैन के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता है। पाहुडदोहा का यह सस्करण कारजा (वरार) से सन् 1933 (विक्रम स 1990) मे प्रकाशित हुआ है।
1 विन्नार के लिए अप्टपाहुइ चयनिका की प्रस्तावना देखें।
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पाहुडदोहा चयनिका के प्रूफ सशोधनो का कार्य अपभ्रंश डिप्लोमा के मेरे विद्यार्थियो, सुश्री प्रीति जैन एव सुश्री सीमा बत्रा ने, जो अकादमी मे कार्यरत हैं, सहर्ष और रुचिपूर्वक सम्पन्न किया है । अत मैं उनका आभारी हूँ । मैं सुश्री प्रीति जैन का विशेष रूप मे आभारी हूँ जिन्होने इस पुस्तक के सम्पादन - प्रकाशन मे महत्वपूर्ण सुझाव दिए ।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगारणी ने प्रस्तावना लिखते समय मुझे महत्वपूर्णं विचार दिए और व्याकरणिक विश्लेषरण का मूल प्रति से मिलान किया. इसके लिए मैं प्राभार व्यक्त करता हूँ ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए जैन विद्या संस्थान समिति एव उसके सयोजक श्री ज्ञानचन्द्र जी खिन्दूका ने जो व्यवस्था की है उसके लिए आभार प्रकट करता हूँ ।
- कमलचन्द सोगारणी
परामर्शदाता अपभ्रंश साहित्य अकादमी जयपुर ।
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श्री सन्मति ★
पुस्तकालय
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1.
गुरु दिरणयरु गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ । अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥
2. अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि सतोसु ।
परसुहु वढ चिततहं हियइ रण फिट्टइ सोसु ॥
3.
प्राभुजंता विसयसुह जे रण वि हियइ धरंति । ते सासयसुहु लहु लहहि निणवर एम भरगति ॥
4. रण वि भुजंता विसय सुह हियडइ भाउ घरति ।
सालिसित्थु जिम वप्पुडउ गर गरयहं रिगवडंति ।।
5.
आयई अडवड वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ । मरणसुद्धई पिच्चलठियइं पाविज्जइ परलोउ ।।
6
घंघई पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अयाणु । मोक्खहं कारण एक्कु खणु रा विचितइ अप्पाणु ॥
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( जिस प्रकार ) ( प्रकाश और अन्धकार की परम्परा के भेद को दिखानेवाला) सूर्य महान (होता है), चन्द्रमा महान ( होता है), (तथा) दीपक (भी) महान (होता है ), ( उसी प्रकार ) जो देव (समतावान व्यक्ति ) ( श्रात्मा के ) स्वभाव और परभाव की परम्परा के भेद को समझाता है, वह (मी) महान (होता है) ।
जो भी सुख स्वय के अधीन (रहता है), (तू) उसमे ही सन्तोष कर । हे मूर्ख | दूसरो के ( अधीन ) सुख का विचार करते हुए ( व्यक्तियो ) के हृदय मे कुम्हलान (होती है), (जो कभी नही मिटती है ।
1
जो (इन्द्रिय-) विषयो ( से उत्पन्न ) सुखो को सब ओर से भोगते हुए ( भी ) ( उनको ) कभी भी हृदय में धारण नही करते हैं, वे (व्यक्ति) शीघ्र ( ही ) अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार जिनवर ( समतावान व्यक्ति ) कहते हैं ।
(जो ) (व्यक्ति) (इन्द्रिय-) विषयो के सुखो को न भोगते हुए भी ( उनके प्रति ) श्रासक्ति को हृदय मे रखते हैं, (वे) मनुष्य नरको मे गिरते हैं, जैसे बेचारा सालिसित्य ( नरक मे ) ( पडा था ) |
( जो ) (व्यक्ति) आपत्ति मे अटपट बडवडाता है, ( उससे ) (तो) लोक ( ही ) खुश किया जाता है ( और कोई लाभ नही होता है), किन्तु ( आपत्ति मे ) मन के कषायरहित होने पर (और) अचलायमान और दृढ होने पर ( यहाँ ) पूज्यतम जीवन प्राप्त किया जाता है ।
धे मे पडा हुआ सकल जगत ज्ञानरहित ( होकर ) ( हिंसा आदि के) कर्मों को करता है, ( किन्तु ) मोक्ष (शान्ति) के कारण श्रात्मा को एक क्षण भी नही विचारता है ।
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7.
अण्णु म जारराहि अप्परगउ घर परियणु तणु इछु । कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं सिठ्ठ ॥
8. जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ जं सुहु त पि य दुक्खु ।
पई जिय मोहहिं वसि गयइ तेरण रण पायउ मुक्खु ॥
9. मोक्खु ण पावहि जीव तुहु धणु परियणु चिततु ।
तो इ विचितहि तउ जि तउ पावहि सुक्खु महंतु ॥
10. मुढा सयलु वि कारिमउ में फुड तुहुं तुस कंडि ।
सिवपइ णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छडि ।
11.
विसयसुहा दुइ दिवहडा पुणु दुक्खह परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहं अप्पाखधि कुहाडि ॥
12. उवलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिछाहार ।
सयल वि देह णिरत्य गय जिह दुज्जणउवयार ॥
13. अयिरेण थिरा मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा ।
फाएग जा विढप्पड़ सा किरिया किण कायव्वा ॥
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घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) (चूंकि ) ( वे) (सब) (आत्मा से ) घीन वनावटी (स्थिति) ( है )
इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, अन्य ( हैं ) | (वे) (मव) कर्मों के
|
( ऐसा ) योगियो द्वारा श्रागम मे बताया
गया है ।
हे जीव । (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता मे डूबा है । ( इस कारण से ) जो दुख ( है ) वह ( तेरे द्वारा ) सुख ही माना गया ( है ) और जो ( वास्तविक ) सुख ( है ), वह ( तेरे द्वारा ) दुख हो ( समझा गया है) । इसलिए तेरे द्वारा परम शान्ति प्राप्त नही की गई ( है )
।
हे जीव । तू घन और नौकर-चाकर को मन मे रखते हुए शान्ति नही पायेगा । प्राश्चर्य | तो भी (तू) उनको उनको ही मन मे लाता है (और) ( उनसे ) विपुल सुख ( व्यर्थ मे ) ( ही ) पकडता है ।
हेमूढ 1 (यह ) सब ( ससारी वस्तु समूह ) ही बनावटी ( है ) । ( इसलिए ) तू ( इस ) स्पष्ट ( वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट अर्थात् तु इसमें समय मत गवाँ । घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोडकर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति ) मे अनुराग कर ।
(इन्द्रिय - ) विषय-सुख दो दिन के ( हैं ), और फिर दुखो का क्रम (शुरु हो जाता है ) | है ( आत्म-स्वभाव को ) भूले हुए जीव ' तू अपने कधे पर कुल्हाडी मत चला ।
(तू) ( चाहे ) ( शरीर का ) उपलेपन कर, ( चाहे ) घी, तेल आदि लगा, ( चाहे ), सुमधुर श्राहार ( उसको ) खिला, (और) (चाहे ) ( उसके लिए ) ( और भी ) ( नाना प्रकार की ) चेष्टाएँ कर, ( किन्तु) देह के लिए ( किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुआ ( है ), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति ( किया गया ) उपकार ( व्यर्थ होता है) ।
अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुरगो ( की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ ( स्व-पर उपकारक ) क्रिया उदय होती है, वह क्यो नही की जानी चाहिए ?
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14.
अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जइ केवलणाणसहाउ । ता पर किज्जइ काई वढ तणु उप्परि अणुराउ ॥
15.
जसु मरिण गाणु ण विष्फुरइ कम्महं हेउ करंतु । सो मुरिण पावइ सुक्खु ण वि सयलई सत्य मुरणंतु ॥
16.
बोहिविवज्जिउ जीव तुहं विवरिउ तच्चु मुणेहि । कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पारण भरणेहि ॥
17.
रण वि तुहं पंडिउ मुक्खु ण वि ण वि ईसरु ण वि णीसु । ण वि गुरु कोइ वि सोसुण वि सन्चई कम्मविसेसु ॥
18
ण वि तुहुं कारणु कज्जु ण वि ण वि सामिउण वि मिच्चु। सूरउ कायरु जीव रण वि ण वि उत्तमु ण वि पिच्चु ।
19. पुण्णु वि पाउ वि कालु गहु धम्मु प्रहम्मु ण काउ ।
एक्कु वि जीव ण होहि तहुं मिल्लिवि चेयरणभाउ ॥
20. जवि गोरउ वि सामलउण वि तुहं एक्कु वि वण्णु ।
ण वि तणुअंगउ थूलु ण वि एहउ जाणि सवण्णु ॥
21.
देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जोव करहि । जो अजरामरु बभु पर सो अप्पारण मुणेहि ॥
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यदि आत्मा नित्य और केवलज्ञान स्वभाववाली समझी गई ( है ), तो हे मूर्ख । ( इस श्रात्मा से ) भिन्न शरीर के ऊपर श्रासक्ति क्यो की जाती है I
?
जिस ( मुनि) के हृदय मे ( प्राध्यात्मिक) ज्ञान नही फूटता है, वह मुनि सभी शास्त्रो को जानते हुए भी सुख नही पाता है (और) विभिन्न कर्मों (मानमिक तनावो) के कारणो को करता हुआ ही (जीता है) ।
श्राध्यात्मिक ज्ञान (से रहित ) के असत्य मानता है । (तथा) कर्मों को (तू) स्वयं की (चित्तवृत्ति) समझता है ।
बिना हे जीव । तू (ग्रात्म - ) तत्व को से रचित उन ( शुभ - अशुभ) चित्तवृत्तियो
( हे मनुष्य ) । न ही तू पडित ( है ), न ही (तू) मूर्ख ( है ), न ही (तू) घनी (है), न ही (तू) निर्वन ( है ), न ही (तू) गुरु ( है ) । कोई शिष्य (भी) नही ( हैं ) | ( ये ) सभी ( बातें) कर्मों की विशेषता ( हैं ) ।
हे मनुष्य 1 न ही तू कारण ( हैं ), न ही (तू) कार्य ( है ), न ही (तू) स्वामी (है), न ही (तू) नौकर (है), न ही (तू) शूरवीर ( है ), ( न ही ) (तू) कायर ( है ), न ही (तू) उच्च (है) और न ही (तू) नीच ( है ) ।
हे मनुष्य 1 तू पुण्य, पाप और मृत्यु नही ( हैं ) । (तू) धर्म, अधर्म और शरीर नही ( है ) | ( वास्तव मे ) (तू) ज्ञानात्मक स्वरूप को छोडकर कुछ भी नही है ।
(हे मनुष्य ) ' (तू) न गोरा ( है ), न काला ( है ) । इस प्रकार ( तेरा) कोई भी वर्ण नही । (तू) न ही दुर्बल अगवाला ( है ) और न ही स्थूल ( शरीरवाला ) है | ( अ ) तू स्ववर्ण (स्व-स्वरूप) को समझ ।
हे मनुष्य । देह का बुढापा औौर ( उसकी ) मृत्यु को देखकर भय मत्त कर । जो अजर-अमर परम ब्रह्म ( है ), वह ( तेरा ) स्वरूप ( है ) । ( इस बात को ) (तू) ससझ ।
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22 देहहि उब्भउ जरमरणु देहहि वण्ण विचित्त 1 देहहो रोया जाणि तुहुं देहहि लिंगई मित्त ॥
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कम्मह केरउ भावडउ जइ श्रप्पाण भणेहि । तो वि ण पावहि परमपउ पुणु संसारु भमेहि ॥
अप्पा मिल्लिवि गारणमउ अवरु परायउ भाउ 1 सो छंडेविणु जीव तुहुं भार्वाहि सुद्धसहाउ ॥
बुज्झहु बुज्झहु जिणु भरगइ को बुज्झउ हलि अण्णु । अप्पा देहहं गारणमउ छुडु बुज्भियउ विभिष्णु ॥
पंच वलद्द र रक्खियइं गंदरणवण ग गनो सि । अप्पु ण जाणिउ ण वि परु वि एमइ पव्वइनो सि ॥
मणु जाणइ उवएसडउ जह सोंवेइ श्रचतु । श्रचित्तहो चित्तु जो मेलवइ सो पुणु होइ णिचितु ॥
मिल्लहु मिल्लहु मोक्कलउ जहि भावइ तह जाउ । सिद्धिमहापुरि पइसरउ मा करि हरिसु विसाउ ||
अम्मिए जो पर सो जि परु परु अप्पाण ण होइ । हउ उज्झउ सो उव्वरइ वलिवि ण जोवइ तो इ ॥
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हे मित्र | तू समझ (कि) वुढापा और मृत्यु दोनो देह मे (होते हैं), भिन्नभिन्न प्राकृतियाँ देह मे (ही) (होती है) । रोग (भी) देह के (ही) (होते हैं), (विभिन्न) लिंग भी देह मे ही (होते है)।
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यदि (तू) कर्मों से सम्बन्वित भाव को आत्मा कहता है, तव (तू) परम पद प्राप्त नहीं करेगा और फिर मसार (मानसिक तनाव) मे भ्रमण करेगा।
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ज्ञानमय प्रात्मा को छोडकर दूसरा (कोई भी) भाव (झुकाव) पर-सम्बन्धी (ही) (होता है) । हे मनुष्य | तू उसको छोडकर (आत्मा के) शुद्ध स्वभाव का ध्यान कर। यदि ज्ञानमय आत्मा देह से भिन्न समझ ली गई (है), (तो) हे (व्यक्ति)। कौन अन्य (बात) को (व्यर्थ हो) समझे ? (इसलिए) जिन कहते है (कि) तुम सब (इस वात) को समझो, समझो। (तेरे द्वारा) पाँच वैल (रूपीइन्द्रियाँ) नही संभाली गई (हैं) । (तू) नन्दनचन (रूपीआत्मा) को नहीं पहुंचा है। (जव) आत्मा नही जानी गई है)
और पर भी नही जाना गया (है), (तो) ऐसे ही (विना बात ही) (तूने) सन्यास ले लिया है। जब मन चिंतारहित सोता है, (तव ही) उपदेश को समझता है । जो (व्यक्ति) चित्त को अचित्त से मिला देता है, वह निश्चय ही चिन्तारहित हो जाता है।
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जहाँ पर (जो) होता है, वहाँ पर (वह) (तू) होने दे । (किन्तु) (तू) हर्ष और विपाद मत कर । (व्यक्ति) सिद्धिमहापुरी (पूर्ण तनाव-मुक्तता) मे प्रवेश करे। (प्राचार्य कहते हैं) कि (यदि) (तुम) (सब लोग) (हर्ष और विपाद को) छोडते हो (तो) वन्धन (तनाव)-मुक्त (हो जावोगे)।
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अहो । जो पर है, वह पर ही (है) । पर (वस्तु) आत्मा नही होती है । मैं जला दिया जाता हूं, वह (आत्मा) शेप रहता है, तब (मी) (वह) मुडकर (भी) नहीं देखता है।
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30.
जरइ ण मरइ ण सभवइ जो परि को वि अणंतु । तिहुवणसामिउ गाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ॥
31.
अण्णु तुहारउ णाणमउ लक्खिउ जाम ण भाउ । संकप्पवियप्पिउ णाणमउ दड्ढउ चित्तु वराउ ॥
32
णिच्चु णिरामउ णाणमउ परमारणंदसहाउ । अप्पा बुझिउ जेण पर तासु ण अण्णु हि भाउ ॥
33.
अप्पा केवलणाणमउ हियडइ णिवसइ जासु । तिहुयणि अच्छइ मोक्कलउ पाउ न लग्गइ तासु ॥
34.
चितइ जंपइ कुणइ ण वि जो मुणि बंधणहेउ । केवलणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ ॥
35.
अभितरचित्ति वि मइलियई बाहिरि काइं तवेण । चित्ति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ॥
36. खंतु पियंतु वि जीव जइ पावहि सासयमोक्खु ।
रिसहु भडारउ कि चवइ सयलु वि इदियसोक्खु ॥
37. अप्पा मिल्लिवि गुणणिलउ अण्णु जि झायहि भाणु ।
वढ अण्णाणविमोसियह कहं तहं केवलणाणु ॥
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जो न जीर्ण होता है, न मरता है, न उत्पन्न होता (है), (जो) कोई उच्चतम (है), अनन्त (है), त्रिभुवन का स्वामी (है), ज्ञानमय (है), वह निम्सन्देह शिवदेव है।
। 31
जव तक तुम्हारी अनोखी ज्ञानमय स्थिति नही समझी गई (है), (तव तक ही) विचार और सशय किया हुआ वेचारा अशुभ ज्ञानमय चित्त (स्थित रहता है)।
। 32
जिसके द्वारा उच्चतम आत्मा नित्य, निरोग, ज्ञानमय और परमानन्द स्वभाववाली समझ ली गई (है), उसके लिए अन्य झुकाव निश्चय ही नही (रहता है)।
33
जिसके हृदय मे केवलज्ञानमय आत्मा निवास करती है, उसके पाप नही लगता है, (और) (वह) त्रिभुवन मे बन्धन-मुक्त (तनाव-मुक्त) होता
34
जो मुनि वधन (मानसिक तनाव) के कारण को न कभी (मन से) विचारता है, न (वचन से) कहता है और न (काय से) करता है, वह केवलज्ञान से जगमगाता हुआ शरीरवाला (बन जाता है), (इसलिए) (वही) देव (है), (वही) परमात्मा (है)।
35
मीतरी चित्त मैला किया हुआ होने पर बाहर तप से क्या (लाम) है। चित्त मे किसी निरजन को धारण कर जिससे कि (ताकि) मल से छुटकारा पा जाए।
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हे जीव । यदि (तू) खाते हुए (और) पीते हुए ही नित्य शान्ति पा ले (तो) पूज्य ऋषभ ने सब ही इन्द्रिय-सुख क्यो छोडे ?
37
हे मूर्ख । (आश्चर्य है) गुणो के आश्रय आत्मा को छोडकर (तू) दूसरे विचार का ही चिन्तन करता है । (समझ) अज्ञान से जुडे हुए (व्यक्तियो)के लिए वहाँ (उस स्थिति मे) केवलज्ञान (आत्मज्ञान) कैसे होगा?
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अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ जो परदव्वि रमंति । अण्णु कि मिच्छादिट्ठियह मत्थइ सिगइ होति ॥
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अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ मूढ म भायहि श्रण्णु जि मरगउ परियाणियउ तहु किं कच्चहु गण्णु ॥
प्रणु जि जीउ म चिति तुहु जइ वीहउ दुक्खस्स तिलतुसमित्तु वि सल्लडा वेयरण करइ अवस्स ||
अप्पाए वि विभावियई गासइ पाउ खरपेरण सूरु विणासइ तिमिरहरु एक्कल्लउ णिमिसेण ॥
जोइय हियडइ जासु पर जम्मरणमररण विवज्जियउ
एकु जि रिपवसइ देउ !
तो
पावइ परलोउ 11
कम्मु पुराइउ जो खवइ श्रहिरणव पेसु ण देइ । परमरिंगरंजणु जो जवइ सो परमप्पउ होइ ॥
पाउ वि ग्रह परिरणव कम्मई ताम करेइ । परमणिरंजणु जाम ण वि रिणम्मलु होइ मुणेइ ॥
लोहह मोहिउ ताम तुहं विसयहं सुक्ख मुरोहि 1 गुरु पसाएं जाम ण वि अविचल बोहि लहेहि ॥
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जगत् को शोभा आत्मा को छोडकर जो (लोग) पर-वस्तु मे टिकते हैं, (वे ही) मिथ्यादृष्टि (असत्यप्टिवाले) (है)। (इसके) अतिरिक्त क्या मिथ्यादृष्टि के माथे पर सीग होते हैं ?
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हे मूढ | जगत् की शोमा आत्मा को छोडकर (तू) अन्य को मत विचार । (सच है) जिसके द्वारा मरकत (मरिण) जान लिया गया है उसके लिए क्या कांच की गिनती (है)?
हे जीव । यदि तू दुख से डरा हुआ (है), (तो) पर (वस्तु) का मनन मत कर । तिल-तुम जितना भी कांटा अवश्य वेदना उत्पन्न करता है।
(यदि) व्यक्ति के द्वारा (प्रात्मा के गुण) समझे हुए हैं (तो) (वह) पाप को क्षणभर मे नष्ट कर देता है, (जैसे) सूर्य तुरन्त अन्धकारस्पी घर को अकेला नष्ट कर देता है ।
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हे योगी । जिसके मन मे जन्म-मरण से रहित एक ही परम देव निवास करता है, तव (ही) (वह) (व्यक्ति) परलोक (श्रेष्ठ जीवन) प्राप्त करता है।
43
जो पुराने किए हुए कर्मों को नष्ट करता है और नये (कर्मों) का प्रवेश नही होने देता और जो परम निर्दोप (व्यक्ति) को नमन करता है, वह परम आत्मा हो जाता है।
(व्यक्ति) तभी तक कर्मों को उत्पन्न करता है और (उससे) आत्मा मे (तभी तक) दोष उत्पन्न होता है, जव तक (वह) निर्मल होकर उच्चतम और लेप (आसक्ति) से रहित (आत्मा) को नहीं जानता है ।
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लोम के कारण मूच्छित हुआ तू तभी तक विषयो के सुख को (अपना) मानता है, जब तक (तू) गुरु की कृपा से दृढ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं करता है।
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उप्पज्जइ जेण विवोहु ण वि बहिरण्णउ तेण णाणेण । तइलोयपायडेण वि असुदरो जत्थ परिणामो ॥
47
वक्खाण्डा करंतु बुहु अप्पि ण दिण्णु णु चित्तु । करहिं जि रहिउ पयालु जिम पर सगहिउ बहुत्तु ॥
48. पंडियपडिय पंडिया कणु छंडिवि तुस कंडिया ।
अत्थे गंथे तुट्ठो सि परमत्थु ण जाणहि मूढो सि ।।
सयलु वि को वि तडप्फडइ सिद्धत्तणहु तरणेण । सिद्धत्तणु परि पावियइ चित्तहं रिणम्मलएण ॥
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अरि मरणकरह म रइ करहि इंदियविसयसुहेण । सुक्खु पिरंतर जेहिं रग वि मुच्चहि ते वि खरणेण ॥
51. तूसि म रुसि म कोहु करि कोहे णासइ धम्मु ।
धम्मि पछि परयगइ अह गउ माणुसजम्मु ॥
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हत्थ अठ्ठ देवली वालहं रणा हि पवेस । सतु रिणरंजणु तर्हि वसइ रिणम्मलु होइ गवेस ॥
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अप्पापरह रण मेलयउ मणु मोडिवि सहस ति । सो वढ जोइय कि करद जासु रण एही सत्ति ॥
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जिस (ज्ञान) के द्वारा आत्म-वोध उत्पन्न नही किया जाता है, उस तीन लोक को भी प्रकाशित करनेवाले ज्ञान से (व्यक्ति) बाहरी जानकार (तो) (हो जाता हैं) किन्तु वहाँ (उसका ) परिणाम ( इतना होने पर भी) घटिया ही । दिखाई देता है) 1
व्याख्यान देते हुए ज्ञानी ने यदि आत्मा मे चित्त नही दिया ( है ) ( तो ) ( यह बात ऐसे ही है ), जैसे पूरी तरह से करणो से रहित बहुत भूसा ही ( उसके द्वारा ) इकट्ठा किया गया ( है ) |
हे विद्वान् । हे बुद्धिमान । ( तेरे द्वारा ) भूसा कूटा गया ( है ) अर्थ मे सन्तुष्ट हैं । (तू) मूढ है,
हे ज्ञानी । करणो
(करण - समूह ) को छोडकर
| ( श्राश्चर्य) तू ) ग्रन्थ (शब्द) मे और ( क्योकि ) तू परमार्थ को नही जानता है ।
सब ही कोई शरीर से सिद्धत्व (आध्यात्मिक शान्ति) के लिए छटपटाते हैं । किन्तु ( सच तो यह है कि ) चित्त के निर्मल होने से सिद्धत्व प्राप्त किया जाता है ।
अरे मनरूपी ऊँट | इन्द्रिय-विपयो से ( मिलनेवाले) सुख के कारण (तू) ( उनमे ) रमरण मत कर। जिनके कारण निरन्तर सुख नही है, वे तुरन्त ही छोड दिए जाने चाहिए ।
(तू) प्रसन्न रह । नाराज मत (हो) । क्रोध मत कर । क्रोध के कारण शान्ति नष्ट हो जाती है । शान्ति के नष्ट होने पर नरक गति ( मिलती ) है । और ( इस कारण से ) ( व्यक्तियो का ) मनुष्य जन्म ( ही ) व्यर्थ हुआ है ।
हाथ के निकट देवालय स्थित ( है ), किन्तु अज्ञानी का ( उसमे ) प्रवेश नही (होता) है । उस ( देवालय ) मे शान्त और शुद्ध आत्मा रहती है । (तू) निर्मल होकर खोज ।
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आत्मा और पर का मिलाप ( कभी ) नही ( होता है) । (तू) मन को शीघ्र मोडकर इस प्रकार ( समझ ) । हे मूर्ख । वह योगो क्या करेगा जिसके (पास) यह शक्ति नही है ।
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54. अन्तो णस्थि सुईण कालो थोमो वयं च दुम्मेहा ।
त णवर सिक्खियध्वं जि जरमरणक्खय कुणहि ॥
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सवहिं राहिं छहरसहि पर्चाह रूहि चित्तु । जासु ण रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मित्तु ।।
56.
देह गलंतह सवु गलइ मइ सुइ घारण धेउ । हि तेहइ वढ अवसरहिं विरला सुमहिं देउ ॥
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उम्मणि थक्का जासु मणु भग्गा भूवहिं चारु । जिम भावइ तिम संचरउ ण वि भउ रण वि संसारु ॥
सुक्खाडा दुइ दिवहडइ पुणु दुक्खहं परिवाडि । हियडा हउँ पइ सिक्खवमि चित्त करिज्जहि वाडि ॥
59
जेहा पाणह झुपडा तेहा पुत्तिए काउ । तित्यु जि णिवसइ पाणिवइ तहि करि जोइय भाउ ॥
मूलु छडि जो डाल चडि कहं तह जोयाभासि । चीरु ण वुरगणह जाइ वढ विणु उट्टिय इ कपासि ।।
61.
मध्ववियप्पहं तुट्टह चेयणभावगयाह कोलइ अप्पु परेण सिहु हिम्मलझाणठियाहं ॥
5
अन्जु जिरिणज्जइ फरहुलउ लइ पइ देविण लक्ख । जित्यु चविणु परममुणि सव्व गयागय मोक्खु ।।
161
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शास्त्रो का अन्त नही है । समय थोडा है। और हम दुद्धि हैं। (इसलिए) केवल वह (ही) सीखा जाना चाहिए, जिससे (तू) जरा-मरण को नष्ट करे । हे योगीजिसका चित्त सभी प्रासक्तियो द्वारा, छ रसो द्वारा, पाच स्पो द्वारा (इस) पृथ्वीतल पर नही रगा गया है, उसको (तू) मित्र बना ।
देह के गलती हुई होने पर, इन्द्रिय-ज्ञान, शब्द-ज्ञान. मन की स्थिरता और ध्येय सब कुछ क्षीण हो जाता है । हे मूर्ख । तव उस अवसर पर बहुत थोडे (लोग) देव का स्मरण कर पाते है ।
जिसका मन आत्मा मे ठहरा (है), (उसका) (मन) सुन्दर (हुआ है)। और वह ससार (मानसिक तनावो/आसक्तियो) से दूर हुआ (है)। (ऐसा) (व्यक्ति) जिस प्रकार (उसको) अच्छा लगता है, वैसा व्यवहार करे, (क्योकि) (उसके) (कोई) भी आसक्ति नहीं है (और) (इसलिए) (उसके) भय भी नही है । सुख दो दिन तक (रहते हैं), फिर दुखो की परम्परा (चल जाती है) । हे हृदय! मैं तुझको सिखाता हूँ, (कि) (तू) मार्ग पर चित्त लगा।
58
जैसे प्राणियो के लिए झोपडा (होता है), अरे | वैसे ही (जीव के लिए) काय (होती है) । वहा ही प्राणपति (आत्मा) रहता है, (इसलिए) हे योगी | उसमे ही मन लगा।
60
मूल को छोडकर जो डाल पर चढता है, वहां योग कहाँ (है), (तू) कह । हे मूर्ख! ओटे हुए कपास के विना, वुनने के लिए (सामग्री) निश्चय ही नही
(होती है) (और) (वहाँ) (कोई भी) वस्त्र नही बुनता है । 61 सव विकल्पो के टूटे हुए होने पर, आत्मा के स्वभाव मे पहुंचा हुआ होने
पर और निर्मल ध्यान मे ठहरा हुआ होने पर व्यक्ति दूसरे (पदार्थ) के साथ (केवल) क्रीडा ही करता है (उसमे आसक्त नही होता है)। (आत्म-शान्तिरूपी) लक्ष्य को स्वीकार करके और (सयम को) ग्रहण करके, तेरे द्वारा (इन्द्रियरूपी) ऊँट आज ही जीते जाते है (जीते जा सकते हैं) । जहाँ आरूढ होकर सभी परम-मुनि ससारी गमनागमन से मुक्ति
(शान्ति) (प्राप्त करते हैं)। : पाहुडदोहा चयनिका ]
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अप्पा मिल्लिवि एक्कु पर अण्णु ण वइरिउ कोइ। जेण विणिम्मिय कम्मडा जइ पर फेडइ सोइ।
64
जइ वारउं तो तहिं जि पर अप्पहं मणु ण घरेइ । विसयहं कारणि जीवड उ णरयहं दुक्ख सहेइ ॥
65
जीव म जारणहि अप्परणा विसया होसहिं म । फल किं पाहि जेम सिम दुक्ख करेसहिं तुझु ॥
66
विसया सेवहि जीव तुहु दुक्खह साहिक एण। तेरण णिरारिउ पज्जलइ हुववह जेम घिएण ॥
67.
जसु जीवंतहं मणु मुवउ पंचेंदियहं समाणु। सो जारिणज्जइ मोक्कलउ लद्धउ पहु णिवाणु ॥
68
कि किज्जइ बहु अक्खरहं जे कालि खउ जति । जेम अणक्खर संतु मुणि तव वढ मोक्खु कहति ॥
69
छहदंसरणीय
कारण
बहुल अवरुप्पर गज्जति । इक्कु पर विधरेरा जाति ॥
18 ]
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हे आत्मन् । एक पर ( श्रसक्ति) को छोडकर अन्य कोई भी शत्रु नही (है) । जिसके द्वारा कर्म निर्मित हुए ( हैं ), ( उस) पर ( - श्रसवित ) को ( जो ) दूर हटाता है, वही यति है ।
यदि ( मैं ) मन को (आत्मा मे) रोकता हूँ, तो (भी) (वह) वहाँ 'पर' मे ही ( जाता है), (और) ( खेद है कि ) ( वह) ( मन ) श्रात्मा को धारण नही करता है । जीव (मनुष्य) विषयो के कारण नरको के दुखो को सहन करता है ।
हे जीव 1 (तू) मत समझ ( कि ) (तू) जैसे-तैसे ( विषयरूपी) फलो को क्यों पकाता है ? को पैदा करेंगे ।
इन्द्रिय - विषय मेरे ( तेरे) अपने होगे ।
वे तेरे लिए दुखो
हे मनुष्य । तू इन्द्रिय-विषयो का सेवन करता है । इससे तो (तू) दु खो IT HTET ( ही ) (होता है ) । इसलिए (तू) निरन्तर (जलता है) जैसे घी से अग्नि जलती है ।
जिस (मनुष्य) का जीते हुए ही पचेन्द्रिय के साथ मन मरा हुआ (है), वह मुक्त समझा जाता है, ( क्योकि ) ( उसके द्वारा) शान्ति (या) ( उसका ) मार्ग प्राप्त किया गया ( है ) ।
हे मूर्ख' (उन) बहुत शब्दो ( के ज्ञान) से क्या (लाभ) प्राप्त किया जा है, जो (कुछ) समय मे विस्मरण को प्राप्त होते हैं ? ( वास्तव मे ) जिस (ज्ञान) से (तू) अक्षररहित (हो जावे ) ( वह) तेरे लिए मोक्ष है । सत और मुनि ( ऐसा ) कहते हैं ।
पाहुडदोहा चयनिका ] '
( मन मे ) छह दर्शनो की गाँठ के कारण बहुत ( दार्शनिक) एक दूसरे के विरुद्ध गरजते हैं । (सच तो यह है कि ) जो ( दुख का ) कारण ( है ), वह (आसक्ति) एक ( ही ) ( है ), किन्तु ( वे लोग ) विपरीत समझते हैं ।
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वढ बुज्तह रगउ भति । सिद्धतपुरार्णाहं वेय श्रारणंदेरण व जाम गउता वढ सिद्ध कहति ॥
भिण्णउ जेहि ण जाणियउ रिणयदेहहं परमत्यु | सो अधउ अवरह अधयह किम दरिसाव पंथु ॥
जोइय भिण्णउ काय तुहु देहह ते अप्पाणु | जइ देह वि अप्पर मुखहि ण वि पावहि णिव्वाणु ॥ रायवयल्लाह छहरसह पंचहि रूर्वाह चित्तु । जासु ण रंजिउ भुवणर्यालि सो जोइय करि मित्तु ॥
तोडिवि सयल वियप्पडा अप्पह मणु वि धरेहि । सोक्खु णिरतरु तह लहहि लहू ससारु तरेहि ||
पुरण होइ विस्रो विहवेरण मत्रो मएरण मइमोहो । मइमोहेर य णरय तं पुण्रण अम्ह मा होउ ||
20 1
मित्रो सिताम जिरणवर जाम ण मुणिश्रो सि देहमज्झमि । जइ सुणिउ देहमज्झम्मि ता केण णवज्जए कस्स ॥
ता संकष्पवियप्पा कम्म प्रकुणंतु सुहासुहाजणय । अप्पसरुवासिद्धी जाम ण हियए परिफुरइ ॥
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हे मूर्ख । वेद, सिद्धान्त और पुराणो को समझते हुए (व्यक्तियो) के लिए (इसमे) (कोई) सन्देह नही (है) (कि) जब आनन्द से कोई मरा (है), तव हे मूर्ख । (वे लोग) (उमको ही) सिद्ध (सफल) कहते है ।
1
जिसके द्वारा परमार्थ (को) निज देह से भिन्न नही जाना गया (है), वह अघा (है)। (वह) किस प्रकार दूसरे अवो के लिए मार्ग दिखलायेगा?
हे योगी! तू तेरी प्रात्मा को देह से भिन्न ध्यान कर। यदि (तू) देह को ही आत्मा मानता है (तो) (तू) निर्वाण (परम शान्ति) कभी नही पायेगा।
3
छह रसो द्वारा, पाच रूपो द्वारा (तथा) आसक्ति के कोलाहल के द्वारा जिसका चित्त (इस) पृथ्वीतल पर नही रगा गया (है), हे योगी । (तू) उसको ही मित्र बना। .
14
सब ही विकल्पो को तोडकर (तू) आत्मा मे ही मन को धारण कर । वहाँ (ही) (तू)निरन्तर सुख पायेगा (और) शीघ्र ससार (मानसिक तनाव) को पार कर जायेगा।
पुण्य से वैभव होता है। वैभव से मद (होता है) । मद से बुद्धि की मूर्छा (होती है) और बुद्धि की मूर्छा से नरक (होता है) । वह पुण्य मेरे लिए न होवे।
हे जिनेन्द्र (तुम) तब तक ही नमस्कार किए गए हो, जब तक (तुम) देह के अन्दर नही समझ गए हो । यदि (तुम) देह के अन्दर जान लिए गए (हो) तो किसके द्वारा किसको नमस्कार किया जाए ?
शुभ-अशुभ को उत्पन्न करनेवाला कर्म न करते हुए (मी) सकल्प-विकल्प तब तक (रहते हैं), जब तक हृदय मे प्रात्म-स्वरूप की सिद्धि स्फुरित नही होती है।
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श्रवधउ
श्रक्खरु जं उप्पज्जइ । अणु विकिपि गाउ रंग किज्जइ ॥ श्राइं चित्ति लिहि मणु धारिवि । सोउ रिणचितिउ पाय पसारिवि ॥
कि बहुए डवड वडिण देह ण अप्पा होइ । देहहं भिण्णउ णाणमउ सो तुहु प्रप्पा जोइ ॥
दयाविहीउ धम्मडा णारिणय कह वि रग जोइ । बहुए सलिलविरोलियइ करु चोप्पडा रग होइ ॥
मल्लारण वि णासति गुण जहं सह संगु खलेहिं । asसारणरु लोहह मिलिउ पिट्टिज्जइ सुघररोह ||
तित्थई तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेर । एह मणु किन धोएसि तुहुं मइलउ पावमलेर ||
22 1
जोइय हियडइ जासु ण वि इक्कु रग रिगवसइ देउ । जम्मरणमरणविवज्जियउ किम पावइ परलोउ ॥
जिम लोणु विलिज्जइ पारिणयह तिम जइ चित्तु विलिज्ज । समरसि हूवइ जीवडा काई समाहि करिज्ज ॥
तित्थई तित्य भमंतयह संताविज्जइ अप्पा भाइयइ रिणव्वाणं पउ
अप्पे
देह |
देहु ॥
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(यह उत्तम है) कि दृढ अहिंसा (तेरे मन मे) उत्पन्न होती है। (तथा) (तेरे द्वारा) थोडा कुछ भी अन्याय नही किया जाता है । (तू) (अन्याय न करना और अहिंसा का पालन करना)-इन दोनो को मन मे स्थिर करके अपने चित्त मे लिख ले और फिर पांवो को पसार कर निश्चिन्त होकर सो।
79
वहुत अटपट कहने से क्या (लाम है)? देह आत्मा नही (है)। हे योगी। देह से मिन्न (जो) ज्ञानमय आत्मा है, वह तू (है)।
80
हे ज्ञानी योगी दया मे रहित धर्म किसी तरह भी नही होता है) । (यह इतना ही सच है जितना कि) विलोडन किए हुए बहुत पानी से (भी) हाथ (कमी) चिकना नही होता है। जहा(मलो की) दुष्टो के साथ सगति (हुई) (कि) भलो के गुण भी नष्ट हो जाते हैं । (क्या यह सच नहीं है कि) लोहे के (साथ) मिली हुई अग्नि हथौडो से पीटी जाती है ?
81
82
तीर्थों पर, तीर्थों पर (तू) जाता है। हे मूर्ख (तेरे द्वारा) (वहाँ) जल से चमडा घोया हुआ (है)। (किन्तु यह बता कि) पाप-मल से मैले इस मन को तू किस प्रकार धोयेगा?
83
हे योगी। (तू बता कि) जिसके हृदय मे जन्म-मरण से रहित एक दिव्य
आत्मा निवास नहीं करती है, (वह) किस प्रकार श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करेगा?
84
जिस प्रकार नमक पानी मे विलीन हो जाता है, उसी प्रकार यदि चित्त (आत्मा मे) लीन हो जाता है, (तो) जीव समतारूपी रस मे डूब जाता है। (और) समाधि क्या (कार्य) करती है ।
85
तीर्थों मे, तीर्थों मे भ्रमण करते हुए (व्यक्तियो) की देह (ही) दुखी को जाती है । (चूंकि) (निर्वाण के लिए) प्रात्मा के द्वारा आत्मा ध्याया गया है, (इसलिए) (तू) निर्वाण में कदम रख ।
पाहुडदोहा चयनिका 1
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मूढा जोवइ देवलई लोर्याह जाई कियाई देह ण पिच्छ श्रप्पणिय जह सिउ सतु ठियाइ ||
देहादेवलि सिउ वसई तुहु देवलई रिएहि । हासउ महु मणि प्रत्थि इहु सिद्धे भिक्ख भमेहि ॥
जिणवरु झायहि जीव तुहु विसयकसायह खोड दुक्खु ण देक्खहि कह मि वढ अजरामरु पउ होइ ॥
इदियपसरु णिवारियइ मण जाणहि परमत्यु अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अवरु विडाविड सत्यु ||
विसया चिति म जीव तुहुं विसय ण भल्ला होति । सेवंताहं वि महर वढ पच्छई दुक्खइ दिति ॥
भवि भवि दंसणु मलर हिउ भवि भवि करउ समाहि । भवि भवि रिसि गुरु होइ महू हियमणुब्भववाहि ॥
वेपथेह ण गम्मइ वेमुहसूई ण सिज्जए कथा । विणि रग हंति अपारणा इदियसोक्खं च मोक्ख च ॥
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लोगो के द्वारा जो देवालय बनाये गये हैं, मूढ (व्यक्ति) (उनको) (तो) देखता है। (किन्तु) (खेद है कि) (वह) अपनी देह को नही देखता है जहाँ शान्त परम आत्मा ठहरा हुआ (है)। देहरूपी मन्दिर मे परम आत्मा बसती है । (किन्तु) तू (उसके लिए) मन्दिरो को देखता है । मेरे मन मे यह हँसी (प्राती) है (कि) सिद्ध होने पर भी (तू) भीख के लिए घूमता है। विषय-कषायो को नष्ट करके हे जीव । तू जिनेन्द्र का ध्यान कर । (इस प्रकार) (तू) कही भी दुख नही देखेगा । हे मूर्ख । (तू समझ कि) अजरामर पद (इससे ही) होता है । (यदि) (विमिन्न) इन्द्रियो के प्रसार रोके गए हैं (तो) हे मना (तू) (इसी को) परमार्थ समझ । ज्ञानमय आत्मा को छोडकर दूसरे शास्त्र अटपटे (ही) (लगते) (हैं) ।
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हे जीव! तू विषयो का चिन्तन मत कर । विषय अच्छे नही होते हैं । (विषयो का) सेवन करते हुए (व्यक्तियो) के लिए (वे) मधुर (होते हैं)। किन्तु हे मूर्ख (वे) पीछे दु खो को देते हैं । (हे भगवन! ) (मेरे) मलरहित सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक श्रद्धा) प्रत्येक जन्म मे रहे। प्रत्येक जन्म मे (मैं) समाधि के लिए प्रयत्न करूं । (तथा) (जिनके द्वारा) मन से उत्पन्न (आसक्तिरूपी) व्याधि नष्ट कर दी गई है, (ऐसे) ऋषि प्रत्येक जन्म में मेरे गुरु (होवें)।
92
(तू समझ कि) दो मार्गों से गमन नही किया जाता है। दो मुखवाली सूई से पुराना वस्त्र नहीं सिया जाता है । (ठीक इसी प्रकार) हे अज्ञानी' इन्द्रियसुख और तनाव-रहितता दोनो (एक साथ) नही होते हैं ।
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व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
-महान
-सूर्य
दियरु हिमकरण दीवउ
देउ
(गुरु) 1/1 वि (दिणयर) 1/1 (हिमकरण) 1/1 (दीवन) 1/1 (देश) 11 [(अप्प-→अप्पा)-(पर)6/2] (परपर) 6/2 (ज) 1/1 मवि (दरिस-→दरिसाव) व ने
3/1 सक (भेन) 2/1
-चन्द्रमा -दीपक =देव =स्व भाव और पर भाव की -परपरा के
प्रप्पापरह परपरह
दरिसाव
=समझाता है
ਮੇਰ
=भेद को
प्रप्पायत्तउ
-जो
[(अप्प)+ (आयत्तउ)] =स्वय के अधीन [(अप्प)-(प्रायत्त अ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] (ज) 1/1 सवि अव्यय
=भी (मुह) 1/1 (त) 3/1 स
-उससे अव्यय (कर) विधि 2/1 मक
=कर (मतोस) 2/1
=सतोष
करि संतोसु
1. ममान मे ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है (हे प्रा व्या 1-4)।
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परसुह
[(पर) वि-(सुह)2/1]
चढ
दूसरो के (अधीन) सुख ___ को (का)
हे मूर्ख =विचार करते हुए (व्यक्तियों
(वढ) 8/1 वि (चिंत-चितत) वक 6/2
चिततह
हियह
-हृदय मे
फिट्टइ सोसु
(हियन)7/1 अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (सोम) 1/1
-मिटती है =कुम्हलान
आभुजता
विसयसुह
र
(प्रा-भुज→भुजत) वकृ1/2 [(विसय)-(सुह)2/2] (ज) 1/2 सवि अव्यय ग्रव्यय (हियत्र)7/1 (घर)43/2 सक (त)1/2 सवि [(सासय) वि-(सुह) 2/1] अव्यय (लह) व 3/2 सक (जिएवर) 1/2 अव्यय (मण) व 3/2 सक
-सब ओर से भोगते हुए =विषयो (से उत्पन्न) सुखो को =जो
नहीं -कभी -हृदय में धारण करते है
हिया धरति
सासयसुह लहु लहहिं जिणवर
अविनाशी सुख को -शीघ्र -प्राप्त करते हैं -जिनवर -इस प्रकार =कहते हैं
एम
भणति
भुजता विसय
अव्यय अव्यय (भुज-मुजत) वकृ 1/2 (विसय) 6/2 (सुह) 2/2
-भी =भोगते हुए -विषयो के =सुखो को
सह
* पाहुडदोहा चयनिका ]
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भाउ
5
हियडइ (हिय-अडा--हियडअ)7/1 =हृदय में
'अडग्र स्वार्थिक (मात्र)2/1
=प्रासक्ति को घरति (घर) व 3/2 सक
=रखते हैं सालिसित्यु (मालिमित्य) 1/1
-सालिसित्य जिम अव्यय
-जैसे वापुडउ (वप्पुडा+उ+वप्पुडउ)1/1 =वेचारा
वि (दे) (गर) 1/2
=मनुष्य गरयह (णरय)6/2
=नरकों मे णिवडति (रिणवड) व 3/2 अक =गिरते हैं प्रायइ2 (आय)7/1
=आपत्ति मे अडवड (अडवड) 1/1 वि
=प्रटपट वडवड (वडवड) व 3/1 अक =बडबडाता है पर अव्यय
=किन्तु रजिज्जइ (रज-रजिज्ज) व कर्म3/1 सक=खुश किया जाता है लोउ (लो) 1/1
=लोक मणसुद्धइ [(मण)-(सुद्ध)7/1 वि] =मन के कषायरहित होने पर णिच्चलठियइ (रिणच्चल) वि-(ठिअ) 7/1वि] =अचलायमान और दृढ होने |
पर पाविज्जइ (पाव) व कर्म 3/1 सक प्राप्त किया जाता है परलोउ [(पर) वि-(लोअ) 1/1] =पूज्यतम जीवन घघइ (घ) 7/1
=ध में पडियउ (पड-पडिय--पडियन) भूकृ =पडा हुआ
1/1 'अ' स्वार्थिक सयलु (सयल)1/1 वि
-सकल (जग) 1/1
=जगत
जगु
1 कनी कमी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है-(हे प्रा व्या 3-134, 2 श्रीवास्तव, अपनश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ, 1461
28 1
( पाहुडदोहा चयनिका
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कम्मई कर प्रयाणु मोक्खहर कारणु
(कम्म) 2/2 (कर) व 3/1 सक (अयारण) 1/1 वि (मोक्ख) 6/1 (कारण)2/1 (एक्क) 1/1 वि (खण) 1/1 अव्यय अव्यय (चित) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1
=कर्मों को =करता है
ज्ञानरहित -मोक्ष के =कारण -एक =क्षण
नहीं =भी =विचारता है -आत्मा को
खणु
चित अप्पाण
अगु
जाणहि अप्पणउ घर परियणु
तणु
कम्मायत्तउ
(अण्ण) 1/1 वि
अन्य अव्यय
मत (जाण) विधि 2/1 सक -जानो (अप्पण) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक-अपनी (घर) 2/1
-घर (परियण)2/1
-नौकर-चाकर (तण) 2/1
-शरीर (इट्ठ) 2/1 वि
-इच्छित वस्तु को [(कम्म)+(आयतउ)] -कर्मों के अधीन [(कम्म)-(प्रायत्तत्र) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] (कारिमअ)1/1 वि
बनावटी (आगम)7/1
-प्रागम में (जोइ) 3/2
-योगियो द्वारा (सिट्ठ) भूक 1/1 अनि -बताया गया (ज) 1/1 सवि (दुक्ख) 1/1
कारिमउ प्रागमि
जोइहि
सिट्ट
1 श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ, 151 ।
। पाहुडदोहा चयनिका ]
E 29
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________________
त
वह
-सुख -माना गया
सुक्ख किउ पि य
जिय
अव्यय (त) 1/1 मवि (सुक्त)1/1 (किन) भूक 1/1 अनि अव्यय अव्यय (तुम्ह) 3/1 म (जिय) 8/1 (मोह) 3/2 (वस) 7/1 (गय) भूक 1/2 अनि अव्यय अव्यय (पाय)भूकृ ।। अनि 'अ' स्वा (मुक्त) !
मोहहिं
वसि
और तेरे द्वारा =हे जीव -प्रासक्ति के कारण =परतन्त्रता मे -डूबा है - इसलिए =नहीं =प्राप्त की गई -परम शान्ति
गया।
तेण ण
= = Ex x x x FREE FEE FEEEEEE . "
पायउ
मुक्त
मोक्खु
=शान्ति
नहीं =पाता है (पायेगा) हे जीव
पावहि जोन
धरा परिपण
(मोक्ख)211 अव्यय (पाव) व 211 मक (जीव)8/1 (तुम्ह) 1/। म (घ )2.1 (परियण) 2/1 (चित-चिंतन) वकृ 1/1 अव्यय अव्यय (विचित) व 2/1 मक (त) 2/2 म अव्यय
=धन को
नौकर-चाकर को -मन मे रखते हुए =तो
चितु
विचितह
=मन में लाता है -उनको -आश्चर्य
। सम्मान के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है।
30 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
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अव्यय (त) 2/2 स अव्यय (पाव) व 2/1 सक (सुक्ख) 2/1 (महत) 2/1 वि
पावहि
=उनको =पादपूरक =पकडता है -सुख =विपुल
सुक्खु महतु
10 मूढा
सयलु वि कारिमउ
=हे मूर्ख (मूढ) =सब =ही =बनावटी =मत = स्पष्ट
न
तुस
=भूसे को
कडि सिवपइ रिणम्मलि करहि
(मूढ) 8/1 (सयल) 1/1 वि अव्यय (कारिमय) 1/1 वि अव्यय (फुड) 2/वि
| 1/1 स (तुस) 2/1 (कड) विधि 2/1 सक [(सिव) - (पत्र) 7/11 (रिणम्मल) 7/1 वि (कर) विधि 2/1 सक (रड)2/1 (घर) 2/1 (परियण) 2/1 अव्यय (छड) सकृ
रई
-शिवपद मे =निर्मल =कर -अनुराग =घर को =नौकर-चाकर को =शीघ्र =छोडकर
घरु
परियणु
ल
छडि
11 विसयसुहा
दिवहडा पुणु
[(विसय)-(सुह) 1/2] (दुइ) 6/2 वि (दिवह+अड) 6/2 अड स्वा
अव्यय __ (दुक्ख) 6/2
(परिवाडि) 1/1
=विषय-सुख =दो =दिन के =और फिर =दु खो का
परिवाडि
। पाहुडदोहा चयनिका ]
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भुल्लउ जीव
वाहि
(भुल्लन) भूक 8/1 अनि 'अ' स्वा =भूले हुए (जीव) 8/1
हे जीव अव्यय
मत (वह-वाह) प्रे०विधि 2/1 सक =चला (तुम्ह) 1/1 स
(अप्पा→अप्पा) वि-(खध)7/1]-अपने कंधे पर (कुहाडि) 2/1
=कुल्हाडी
अप्पाखधि कुहाडि
उपलेपन कर =घी, तेल मादि लगा =चेष्टाए
देहि
=खिला सुमधुर प्रहार
12 उज्वलि (उव्वल) विधि 2/1 सक
चोप्पटि (चोप्पड) विधि 2/1 सक चिट्ठ (चिट्ठा) 212 करि (कर) विधि 2/1 सक
(दा) विधि 2/1 सक सुमिछाहार [(सुमिट्ठ)+(आहार)]
(सुमिट्ठ) वि-(आहार) 2/1] सयल (सयल) 1/1 वि
अव्यय
(देह) 4/1 गिरत्य (णिरत्थ) 1/1 वि
(गय) भूक 1/1 अनि जिह
अव्यय दुज्जणउवयार [(दुज्जण)-(उवयार) 1/1]
-सब कुछ
वि
देह
-देह के लिए
-व्यर्थ
गय
-हुमा
जिस प्रकार =दुर्जन के प्रति (किया गर.. उपकार ।
13 प्रयिरण
पिरा मइलेण रिणम्मला
(अथिर) 3/1 वि
-अस्थिर (यिर+(स्त्री) थिरा) 1/1वि =स्थिर (मइल) 3/1 वि
-मलिन (रिणम्मल-(स्त्री)णिम्मला)1/1वि-निर्मल
-
| समास मे ह्रस्व का दीर्घ हुआ है (हे प्रा व्या 1-4)।
32 1
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
要
णिग्गुण
गुणसारा
काएरण
जा
विढप्पs
सा
किरिया
कि
ग
कायव्वा
श्रप्पा
ਸਤ
रिगच्च
जइ
ता
पर
किज्जइ
काइ
वढ
तणु
उप्पर
प्रणुराउ
15. जसु
मरिण
गाण
प
विप्फुरs
( गग्गुण) 3 / 1 वि
= गुणरहित
[(गुण) - (सार→मारा) 1 / 1 वि] = गुणो ( की प्राप्ति) के लिए
श्रेष्ठ
शरीर से
- जो
= उदय होती है।
== वह
पाहुडदोहा, चयनिका ]
(काम) 3/1
(जा) 1 / 1 मवि
(विढप्प) व 3 / 1 अक
(ता) 1 / 1 मवि
(faftur) 1/1
अव्यय
अव्यय
( काव्a) विधि 1 / 1 अनि
= यदि
केवलरणारणसहाउ[[(केवलरणारण) - (सहा) 1/1 ] वि] - केवलज्ञान स्वभाववाली
अव्यय
=तो
( पर) 6 / 1 वि
=भिन्न
( किज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि को जाती है
॥ श्रव्यय
=क्यो
= हे मूर्ख
(अप्प ) 1/1
(वुज्झ वुज्झि ) भूकृ 1 / 1 ( रिणच्च) 1/1 वि
अव्यय
(वढ) 8/1
(तणु) 6/1
अव्यय
( श्रणुरा ) 1 / 1
= क्रिया
(ज) 6/1 स
( मरण) 7/1
(सारण) 1/1
अव्यय
(विप्फुर) व 3 / 1 अक
== क्यो
= नहीं
= की जानी चाहिए
== श्रात्मा
==समझी गई
= नित्य
शरीर के
==ऊपर
= श्रासक्ति
- जिसके
- हृदय मे
=ज्ञान
= नहीं
= फूटता है
[ 33
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
फरंतु
Latestk..I
मुरिण
askrit. ... -
कम्मह (कम्म) 6/2
-कर्मों के (हेउ) 2/2
-कारणो को (कर-करत) व 1/1 करता हुमा (त) 1/I सवि (मुरिण) 1/1
-मुनि पाव (पाव) व 3/1 मक
=पाता है सुख (मुक्ख)2/1
-सुख अव्यय
-नहीं अव्यय
=भी सयलइ (सयल) 2/2 वि सत्य (सत्य)2/2
-शास्त्री को मुणतु (मुण-मुणत) व 1/1 जानते हुए 16 वोहिविवज्जित [(वोहि)-(विवज्ज-विज्जिन)-प्राध्यात्मिक ज्ञान के विना
भूक 8/1] तुह (तुम्ह) 1/1 स जीव (जीव) 8/1
-हे जीव विवरित
(विवरिअ) 2/1 वि -असत्य तच्च (तच्च) 2/1
तत्व को मुरणेहि (मुण) व 2/1 सक
=मानता है फम्मविरिणम्मिय [(कम्म)-(विरिणम्म→ -कर्मों से रचित
विरिणम्मिन) भूकृ 2/2] भावडा (भाव+अड) 2/2 'अड' स्वा -चित्तवृत्तियो को
(त) 2/2 सवि अप्पाग (अप्पाण) 6/1
-स्वय को भरणेहि (मरण) व 2/1 सक
=समझता है 17 ण
अव्यय प्रव्यय (तुम्ह) 1/1स (पडिग्र) 1/1 वि
-पडित
34 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
मक्खु
=मूर्ख
ईसरु णीसु
=धनी =धनी नहीं, निधन
गुरु कोई सीसु सव्वई कम्मविसेसु
(मुक्ख) 1/1 वि (ईसर) 1/1 वि [(ण) (ईसु)] रण-अव्यय, ईसु (ईस) 1/1 वि (गुरु) 1/1 (क) 1/1 सवि (सीस) 1/1 (सव्व) 1/2 सवि (कम्म)-(विसेस) 1/1]
=गुरु =कोई -शिष्य =सभी =कर्मों की विशेषता
18. रण
अव्यय
न
हो
कारण कज्जु सामिउ
अव्यय (तुम्ह) 1/1 स (कारण) 1/1 (कज्ज) 1/1 (सामिन) 1/1 (भिच्च) 1/1 (सूर-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (कायर) 1/1 वि (जीव) 8/1 (उत्तम) 1/1 वि (रिणच्च) 1/1 वि
सूरउ कायर जीव
-कारण =कार्य =स्वामी -नौकर =शूरवीर =कायर =हे मनुष्य -उच्च =नीच
उत्तमु
पिच्च
19. पुण्णु
-पुण्य
=और
पाउ
(पुण्ण) 1/1 अव्यय (पाअ)/1 (काल) 1/1 अव्यय (धम्म) 1/1
कालु
राहु
=नहीं =धर्म
धम्म
1 अनिश्चितता के लिए 'ई' जोड दिया जाता है।
पाहुडदोहा चयनिका ।
[ 35
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रहम्म
काउ
(अहम्म) 1/1 अव्यय (काम) 1/1 (एक्क) 1/1 वि अव्यय (जीव) 8/1 (हो) व 2/1 अक (तुम्ह) 1/1 स (मिल्ल+इवि) सकृ [(चयण) वि-(भाग्य) 2/1]
=अधर्म नहीं शरीर =कुछ =भी -हे मनुष्य
एक्कु
जीव होहि
TOPIC
CG
मिल्लिवि यणभाउ
=छोडकर =ज्ञानात्मक स्वरूप को
20
ए
गोरउ
=गोरा -काला
सामलउ
एक्कु वण्ण तणुप्रगउ यूल एहउ जारिण
मवण्णु 21. देहहो
पिस्सिवि जरमरण
अव्यय अव्यय (गोर-अ) 1/1 वि 'अ' स्वा (सामल-अ) 1/1 वि 'अ' स्वा (तुम्ह) 1/1 स (एक्क) 1/1 वि (वण्ण) 1/1 [(तणु)-(अगप) 1/1 वि] (थूल) 1/! वि अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक (म-वण्ण ) 2/1
कोई =वर्ण =दुर्बल अगवाला =स्थूल
इस प्रकार -समझ -स्ववर्ण को
मा
(देह) 6/1
==देह का (पिक्स+इवि) सकृ
-देखकर [(जराजर)-(मरण) 2/1] =वुढापा और मृत्यु को अव्यय
-मत (मप्र) 2/1
-भय (जीव) 8/1
-हे मनुष्य (कर) विधि 2/1 सक
=कर
मउ जीव फरेहि
36 ]
पाहुडदोहा चयनिका
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो
अजरामरु
वभु
परु
सो
अप्पाण
महि
22 देहहि 1
उत्भउ
जरमरण
वण्ण
विचित
देहहो
रोया
जारिण
तुह
लिंगड
मित्त
23 कम्महं
केर
भावडउ
जइ
अप्पारण
भरणेहि
(ज) 1 / 1 सवि [(श्रजर) + (अमर)] [ ( अजर) वि - ( अमर ) 1 / I वि]
( बभ) 1 / 1
(पर) 1 / 1 वि
(त) 1 / 1 सवि
(अप्पा) 1/1
(मुरण) विधि 2 / 1 सक
(देह) 1/7
(उन्मन ) 1/1 वि
पाहुडदोहा चयनिका ]
( वण्ण) 1 / 2
(विचित्त) 1/2 वि
(देह) 6/1
( रोय) 1/2
(जाण) विधि 2 / 1 सक
(तुम्ह) 1 / 1 स
(लिंग) 1/2
( मित्त) 8 / 1
( अप्पारण) 2/1
(भरण) व 2 / 1 सक
अव्यय
=
= जो
=== श्रजर-श्रमर
[( जरा-जर) - (मरण) 1 / 1] = बुढापा और मृत्यु
= श्राकृतियाँ
= भिन्न-भिन्न
=== ब्रह्म
==परम
== वह
स्व-रूप
समझ
= देह मे
==दोनो
= देह के
= रोग
(कम्म) 6/2 (केर ) 2 / 1 वि
( भाव + डन) 2 / 1 'ग्रडग्र' स्वा = भाव को
अव्यय
=यदि
समझ
=तू
= लिंग
= हे मित्र
=
= कर्मों (के) से
==सम्बन्धक परसर्ग
श्रात्मा
कहता है
=तब
1 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 1
2
परमर्ग - श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 161 1
[ 37
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
-पादपूरक
पावहि परमपउ
अव्यय अव्यय (पाव) व 21 सक ((परम) वि- (पत्र) 2/1] अव्यय (ससार) 2/1 (भम) व 2/1 सक
=प्राप्त करता है (करेगा) -परमपद -और फिर =ससार (मे) -भ्रमण करता है (करेगा)
पुणे
संसार भमेहि
24 प्रप्पा
मिल्लिवि णाणमउ
प्रवर
परायउ
भाउ
(अप्प) 2/1
-प्रात्मा को (मिल्ल+इवि) सक
=छोडकर (णारगमन) 2/1 वि
-ज्ञानमय (अवर) 1/1 वि
दूसरा (परायन) 1/1 वि
-पर-सम्बन्धी (मात्र) 1/1
भाव (त) 2/1 स
- उसको (छड+एविणु) सक
-छोडफर (जीव) 8/1
-हे मनुष्य (तुम्ह) 1/1स (झायहि-माय) विधि 2/1 सक-ध्यान कर [(सुद्ध) वि-(सहाम) 2/1] =शुद्ध स्वभाव का
सो
छडेविणु
जीव
तुह झावहि सुखसहाउ
25 बुझ
जिणु भण
(वुज्झ) विधि 2/2 सक (जिण) 1/1 (भण) व 3/1 सक (क) 1/1 सवि (झ) विधि 3/1 सक अव्यय
-समझो =जिन -कहता है (कहते हैं) -कौन -समझे
को
बुझाउ हलि
} मायहि-पाठ ठीक है। 2 श्रीवास्तव, अपभ्रश भापा का अध्ययन, पृष्ठ 212 ।
38 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
अण्ण अप्पा
देहह
पारगम
(अण्ण) 2/1
=अन्य को (अप्प) 1/1
मात्मा (देह) 5/1
-देह से (णाणमन) 1/1 वि
-ज्ञानमय अव्यय
-यदि (बुज्झ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक =समझ ली गई (विभिण्ण) 1/1 वि
=भिन्न
बुझियउ विभिण्णु
26 पच
बलद्द
-पाच -बैल(-रूपी इन्द्रियां) -नहीं =संभाली गई
नन्दनवन(रूपी आत्मा) को -पहुचा
रक्खियइ रगदणवणु गो
सि
अप्पू
(पच) 1/2 वि (बलद्द) 1/2 अव्यय (रक्ख+य) भूकृ 1/2 (णदणवरण) 2/1 (ग) भूक 1/1 अनि (अस) व 2/1 अक (अप्प) I/l (जाण→जाणिप्र) भूकृ 1/1 अव्यय (पर) 1/1 वि अव्यय अव्यय (पन्वइअ) भूकृ 1/1 अनि (अस) व 2/1 अक
जाणित
प्रात्मा जानी गई -भी =पर =और -ऐसे ही -सन्यास ले लिया
एम पव्वइनो
27 मणु
जाप उवएसडउ
(मण) 1/1 (जाण) व 3/1 सक
-समझ (उवएस+अडअ)2/1 'अडन' स्वा =उपदेश को अव्यय
=जब
जहि
1 श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1491
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 39
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोवे अचितु प्रचित्तहो।
चित्तु
जो
(सोव) व 3/1 अक (अचिंत) 1/1 वि (अचित्त) 5/1 (चित्त)2/1 (ज) 1/1 सवि (मेलव) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि अव्यय (हो) व 3/1 अक (रिणचित) 1/1 वि
-सोता है चितारहित अचित्त से चित्त को -जो -मिला देता है -वह =निश्चय ही -हो जाता है चितारहित
मेलवर सो
पूर्ण
होइ
गिचितु
28 मिरलहु
(मिल्ल) व 2/2 सक मोक्कलउ (मोक्कलम) 111 वि 'अ' स्वा नहिं (ज) 7/1 स भावह
(भाव) व 3/1 अक तहि
(त) 7/1 म
(जाअ) विधि 2/1 अक सिद्धिमहापुरि (सिद्धिमहापुर) 7/1 पइसरउ (पइसर) विधि 3/1 सक मा
अव्यय करि (कर) विधि 211 सक हरिसु (हरिस) 2/1 विमाउ (विसाम) 2/1
-छोडते हो बन्धन-मुक्त जहा पर -होता है - वहा पर =होने दे -सिद्धिमहापुरी मे -प्रवेश करे -मत -कर
विषाद
29 अम्मिए
=अहो
जो
-जो
अव्यय (ज) 11 मवि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि
वह
1 धीवास्तव, अपभ्रण मापा का अध्ययन, पृष्ठ 1481
40 ]
| पाहुडदोहा चयनिका
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
30
जि
अप्पारण
ण
होइ
हउ
डज्झउ
सो
उव्वरइ
वलिवि
A
जोवह
तो
E ho
इ
जरइ
ཝཱ ཝ ླ ཝ
संभवइ जो
परि
कोवि
श्ररणतु तिहुवरण सामिउ
णारणमउ
सो
सिवदेउ
भितु
31 अण्ण
अव्यय (अप्पारण) 1/1
श्रव्यय
(हो) व 3/1 क
(अ) 1 / 1 स
(डज्म) व कर्म 1 / 1 सक अनि (त) 1 / 1 सवि
( उव्वर) व 3 / 1 ग्रक
(वल + इवि) सकृ
श्रव्यय
(जोव) व 3 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
पाहुडदोहा चयनिका ]
(जर) व 3 / 1 अक
अव्यय
= ही
श्रात्मा
- नहीं
= होती है
= मैं
== जला दिया जाता हूँ
= वह
- शेष रहता है
-
=
=मुडकर
= नहीं
= देखता है
=तब
=भी
= जीर्ण होता है। == नहीं
=मरता है।
(मर) व 3 / 1 अक
(समव) व 3 / 1 अक (ज) 1 / 1 सवि
[(पर) + (इ)] पर (पर) 1 / 1 वि उच्चतम
इ (अव्यय) = पादपूरक (क) 1 / 1 सवि
(प्रणत) 1 / 1 वि
श्रनत
[ ( तिहुवरण ) - ( सामित्र) 1 / 1 = त्रिभुवन का स्वामी 'अ' स्वार्थिक]
( गारगम) 1 / 1 वि
(त) 1 / 1 सवि
(सिवदे) 1 / 1 (मित) 1 / 1 वि
(अण्णा) 1 / 1 वि
= उत्पन्न होता है।
जो
= कोई
ज्ञानमय
= वह
- शिवदेव
निस्स देह
= अनोखी
[ 41
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुहार (तुहारम) 1/1 वि
-तुम्हारी रगारगम (णाणमन) 1/1 वि
-ज्ञानमय लक्खिउ (लक्ख→लक्खिन) भूक 1/1 -समझी गई जाम अव्यय
-जब तक अव्यय भाउ (भा)1/1
-स्थिति सकप्पवियप्पिउ [(सकप्प)-(वियप्प-विप्पिन) =विचार और सशय किया
भूकृ 1/1] दड्ढउ (दड्ढय) भूक 1/। अनि 'अ' स्वा =अशुभ (चित्त) 1/1
-चित्त वराउ (वराअ) 1/1 वि
बेचारा
चितु
परु
32 णिच्चु (रिणच्च) 1/1 वि
-नित्य गिरामउ (रिणरामत्र) 1/1 वि •-निरोग पारगमउ (णाणमय) 1/1 वि
-ज्ञानमय परमारणदसहाउ [[(परमाणद)-(सहाय)1/1] वि =परमानन्द स्वभाववाली अप्पा (अप्प) 1/1
आत्मा बुज्झिउ (बुज्झ-बुज्झिन) भूक 1/1 -समझ ली गई जेरण (ज) 3/1 स
-जिसके द्वारा (पर) 1/1 वि
उच्चतम तासु (त) 4/1 म
-उसके लिए ग अव्यय
-नहीं अण्ण (अण्ण) 1/1 वि
-अन्य अव्यय
-निश्चय ही (भा) 1/1
= झुकाव 33 प्रप्पा (अप्प) 1/1
-प्रात्मा फेवलणारगमउ (केवलवारणमन) 1/1 वि केवलज्ञानमय हिया
(हिय+अडग्र) 7/1 'अन' स्वा =हृदय मे रिगवस (रिणवम) व 3/1 अक
=निवास करती है नासु (ज) 6/1 म
=जिसके
42 |
[ पाहुटदोहा चयनिका
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिहुयरिण प्रच्छ मोक्कलउ
(तिहृयण) 7/1 (अच्छ) व 3/1 अक (मोक्कलअ) 1/1 वि (पास) 1/1 अव्यय (लग्ग) व 3/1 अक (त) 6/1 स
-त्रिभुवन मे =होता है -बन्धन-मुक्त =पाप =नहीं =लगता है =उसके
पाउ
लग्गइ
तासु
34 चितइ
जपइ कुरगइ
=विचारता है =कहता है =करता है
जो
मुणि
(चिंत) व 3/1 सक (जप) व 3/1 सक (कुण) व 3/1 सक अव्यय अव्यय (ज) 1/I सवि (मुरिण) 1/1 [(बघण)-(हेअ) 2/1] [[(केवलणाण)-(फुरत) वकृ- (तण) 1/1] वि] (त) 1/1 सवि (परमप्पन) 1/1 (देश) 1/1
=कभी =जो =मुनि =बन्धन के कारण को =केवलज्ञान से जगमगाता हुमा शरीरवाला
बघणहेउ (केवलणाण- (फुरततणु
परमप्पा देउ
=परमात्मा =देव
35 अन्भितरचित्ति (अमितर) वि-(चित्त) 7/1] =भीतरी चित्त वि अव्यय
-पादपूरक मइलियड (मइल - मइलिय) भूक 7/1 -मैला किया हुआ होने पर बाहिरि अव्यय
-बाहर
=क्या तवरण (तव)3/1
=तप से (चित्त) 7/1
=चित्त मे मिरजणु (रिणरजण) 2/1 वि
=निरजन को कोवि (क)2/1 सवि
-किसी
काइ
(काइ)1/1स
चित्ति
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 43
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुच्चहि
जम मलेग
36
खन्तु पियतु
वि
रिसह
कि
घरि (घर) विधि 2/1 सक
-धारण कर (मुच्चहि) विधि 2/1 सक अनि =छुटकारा पा जाए अव्यय
-जिससे कि (ताकि) (मल) 3/1
=मल से (खा→खन्त) वकृ 1/1 =खाते हुए (पिय) व 1/1
=पीते हुए अव्यय जीव (जीव)8/1
=हे जीव जइ अव्यय
-यदि पावहि (पाव) विधि 2/1 सक =पाले सासयमोक्खु [(सासय)-(मोक्ख)2/1] =नित्य शान्ति (रिसह) 1/1
=ऋषभ ने भडारउ (भडारअ) 1/1 वि
-पूज्य अव्यय
= क्यों चव
(चव) व 3/1 सक सयलु (सयल) 2/1 वि
=सव अव्यय इदियसोक्खु [(इदिय)-(मोक्ख) 2/1] =इन्द्रिय-सुख 37. अप्पा (अप्प) 21
-प्रात्मा को मिल्लिवि (मिल्ल+इवि) सक -छोडकर गुणरिणलउ [(गुण)-(मिलन)2/1 वि] =गुणो के आश्रय अण्ण (अण्ण) 2/1 वि
-दूसरे अव्यय मायहि (झा→भाय) व 2/1 मक
-चिन्तन करता है भाणु (झारण) 2/1
=विचार का (को) बढ (वह) 8/1
=हे मूर्ख (अण्णाण- [(अण्णारण)-(विमीसिय)
= अज्ञान से जुड़े हुए (विमोमियह भूट 412 अनि
(व्यक्तियो) के लिए
=छोडे
वि
जि
। पाहर दोहा, गपादा-टो हीरालाल जैन, शब्द कोश, पाठ-79 ।
44]
[ पाहुइदोहा चयनिका
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
कह तह केवलणाणु
अव्यय अव्यय (केवलणाण) 1/1
= कैसे =वहां -फेवलज्ञान
जो
38 अप्पा (अप्प) 2/1
=आत्मा को मिल्लिवि (मिल्ल+इवि) सकृ = छोडकर जगतिलउ [(जग)-(तिलस) 2/1 वि] =जगत की शोभा (ज) 1/1 सवि
-जो परदग्वि [(पर)-(दव्व) 7/1] =परवस्तु मे रमति (रम) व 3/2 अक
=टिकते हैं अण्णु (अण्ण) 1/1 वि
=अतिरिक्त अव्यय
= क्या मिच्छादिट्ठियह (मिच्छादिट्ठिय) 6/2विय' स्वा =मिथ्यादृष्टि के मत्था (मत्थ) 7/1
-माथे पर सिंगइ (सिंग) 1/2
=सींग होति (हो) व 3/2 प्रक
=होते हैं
कि
39 अप्पा
मिल्लिवि जगतिलउ मद
मात्मा को =छोडकर =जगत की शोभा =हे मूर्ख
झायहि अण्ण
(अप्प) 2/1 (मिल्ल+इवि) सकृ [(जग)-(तिलअ) 2/1 वि| (मूढ) 8/1 वि अव्यय (झा→माय) विधि 2/1 सक (अण्ण) 2/1 वि (ज) 3/1 स (मरग) 1/1 (परियण→ परियारिणय- परियारिणयअ) भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक
=विचार -अन्य को =जिसके द्वारा =मरकत =जान लिया गया
मरगउ परियाणियउ
। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ, 146 ।
राहुडदोहा चयनिका ]
[ 45
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
(त) 4/1 स अव्यय (कच्च) 6/1 (गण्ण) 11
-उसके लिए -क्या
कांच की -गिनती
कच्चहु। गण्णु
जि
-पर का -पादपूरक =हे जीव
म
-मनन कर
तुह
40 अण्ण (अण्ण) 2/1 वि
अव्यय जीउ
(जीय) 8/1
अव्यय चिति (चित) विधि 2/1 सक
(तुम्ह) 1/1 स
अव्यय वोहउट (वीह-वीहिन) भूक 1/1 दुक्खस्स: (दुक्ख) 611 तिलतुसमित्त (तिलतुसमित्त) 1/1 वि
अव्यय सल्लडा (सल्ल+अड) 1/1 'अड' स्वा
(वैयणा)21 कर
(कर) व 3/1 सक अवस्स
अव्यय
वि
-यदि =डरा हुआ =दुख से -तिल-तुस जितना -भी =कांटा वेदना उत्पन्न करता है अवश्य
41 अप्पाए
वि
विभावियई गासह पाउ खरणे
(अप्प--(स्त्री) अप्पा) 3/1 व्यक्ति के द्वारा अव्यय
पादपूरक (विभाव-विभाविय) भूकृ 1/2 =समझे हुए हैं (पास) व 3/1 सक
-नष्ट कर देता है (पाय)2/1
-पाप को ऋिविध
=क्षण भर मे
1 श्रीवास्तव, अपभ्रश भापा का अध्ययन, पृष्ठ, 150 । 2 पाठ होना चाहिए 'वीहिउ' । 3 कमी-कमी पंचमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-134)।
46 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरु विरणासह
तिमिरहरु
एक्कल्लउ
णिमिसेण
42. जोइय
हियss
जासु
पर
एक
जिन
णिवसइ
देउ
तो
पावइ
परलोड
43 कम्मु पुराइउ
जो
(सूर) 1/1 (विरणास ) व 3 / 1 सक
[ ( तिमिर) - (हर) 2 / 1 ]
( एक्कल्ल) 1 / 1 वि 'अ' स्वा
अव्यय
(ज) 6/1 स
(पर) 1/1 वि
(एक) 1 / 1 वि
श्रव्यय
(विस) व 3 / 1 अक
(देश्र ) 1/1
जन्ममरण
[( जम्म) – (मरण) (विवज्ज - भूक्क जन्म-मरण से रहित विवज्जियउ विवज्जियविवज्जियन)
भूकृ1/1 'अ' स्वार्थिक]
अव्यय
खवइ
श्रहिणव
पेसु
प
देइ
परमणिरजणु
रणवइ
(जोइय) 8/1 'य' स्वार्थिक
(हिय + अडन) 7 / 1' अड' स्वा
(पाव) व 3 / 1 सक (परलोअ ) 2/1
(कम्म) 2 / 1
( पुराइ) 2 / 1 वि
(ज) 1 / 1 सवि
(खव) व 3 / 1 सक (हिरणव) 6/1 वि
(पेस) 2/1
अव्यय
(दा) व 3 / 1 सक
[ (परम ) वि - (रिजण) 2 / 1वि ]
(गव) व 3 / 1 सक
= सूर्य
= नष्ट कर देता है = प्रन्धकाररूपी घर को = अकेला
= तुरन्त
पाहुडदोहा चयनिका ]
= हे योगी
= मन मे
= जिसके
=परम
एक
=ही
= निवास करता है।
===देव
=तव
= प्राप्त करता है
- परलोक
=
=== कर्म को (कर्मों करे)
= पुराने किये हुए
= जो
= नष्ट करता है
= नये का
=
= प्रवेश
- नहीं
= देता
==परम निर्दोष को
==नमन करता है
[ 47
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
44
सो
परमप्पउ
होइ
1
पाउ
वि
ह
परिवह
कम्मइ
ताम
करेइ
जाम
ཀླ ཕ
ण
अव्यय
= उत्पन्न करता है
(कर) व 3/1 सक परमणिरजणु [ ( परम ) वि - ( रिजरण ) 2 / 1 वि] = उच्चतम और लेप से रहित
को
वि
रिगम्मलु होइ
मुरणेह
45 लोहाह
मोहिउ
ताम
तुहं
विसयहं
सुक्ख
मुरोहि
गुरुहु'
पसाए
(त) 1 / 1 सवि (परमप्पा ) 1/1
(हो) व 3 / 1 अक
(पात्र) 1 / 1
श्रव्यय
(अप्प) 7/1
(परिणव) व 3 / 1 अक
(कम्म) 2/2
48 1
अव्यय
अव्यय
श्रव्यय
(रिगम्मल) 1 / 1 वि
(हो+ड) सकृ
(मुण) व 3 / 1 सक
(लोह) 3/2
(मोह मोहित्र) भूक 1/1
श्रव्यय
(तुम्ह) 1/1 म
( विसय) 6 / 2
( सुक्ख) 2 / 1
(मुरण) व 2 / 1 मक
(गुरु) 6/2
(पमा) 3 / 1
श्रादरसूचक होने से बहुवचन हुआ है ।
== वह
=परम श्रात्मा
= हो जाता है
= दोष
=श्रौर
= श्रात्मा मे
= उत्पन्न होता है।
= कर्मों को
= तभी तक
== जब तक
=नहीं
= पादपूरक
= निर्मल
= होकर
= जानता है
= लोभ के कारण
= मूच्छित हुभा
तभी तक
=
=
== विषयो के
सुख को
= मानता है
- गुरु की
कृपा से
=
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाम
अव्यय अव्यय अव्यय (अविचल) 21 वि (बोहि) 2/1 (लह) व 2/1 सक
-जब तक =नहीं =पादपूरक -दृढ -आध्यात्मिक ज्ञान -प्राप्त करता है
अविचल बोहि लहेहि
तेरण
46 उप्पज्जइ
(उप्पज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि उत्पन्न किया जाता है जेण (ज) 3/1 स
=जिसके द्वारा विबोहु (विबोह) 1/1
-प्रात्मबोध अव्यय
नहीं अव्यय
-पादपूरक बहिरण्णउ (बहिरण्म ) 1/1 वि
बाहरी जानकार (त) 3/1 सवि
-उससे पाणेरण (गाण) 3/1
=ज्ञान से तइलोयपायडेण [(तइलोय)-(पायड) 3/1 वि] =तीन लोक को भी
प्रकाशित करनेवाले अव्यय
किन्तु (असुन्दर) 1/I वि
-घटिया जत्थ अव्यय
-वहाँ (जहाँ) परिणामो (परिणाम) 1/1
-परिणाम
असुन्दरो
47. वक्खाण्डा
करतु
(वक्खाण+अड)2/1 'अड' स्वा =व्याख्यान (कर→करत) वकृ 1/1
=देते हुए (बुह) 1/1 वि
-ज्ञानी ने (अप्प) 7/1
-प्रात्मा मे अव्यय
नहीं (दिण्ण) भूक 1/1 अनि
=दिया
अप्पि
दिण्णु
l
यहाँ सकर्मक क्रिया से बना हुआ भूतकालिक कृदन्त (दिण्ण) कर्तृवाच्य मे प्रयुक्त हुआ है जो विचारणीय है ।
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 49
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
णु
चित्तु
करणह
जि
रहिउ
पयालु
जिम
49
पर
सगहिउ
बहुत्तु
48 पंडियपंडिय
पडिया
कण
छडिवि
तुस
कडिया
प्रत्ये
गथे
तुट्ठों
सि
परमत्यु
ए
जाहि
मूढो
सि
सयलु
वि
कोवि
तडफडड
50 1
अव्यय
(चित्त) 2 / 1
(करण) 3/2
अव्यय
(रह रहित्र) भूकृ 1/1
(पयाल) 1/1
अव्यय
अव्यय
(सगह सहि) भूकृ 1/1 (बहुत) 1/1 वि
[ ( पडिय) - ( पडिय) 8 / 1 वि]
( पडिय) 8 / 1 वि
(करण) 2/1
(छड + इवि) सकृ
(तुस) 1/1
(कडकडिय) भूकृ 1/1
(अत्य) 7/1
(गथ) 7/1
(तु) भूकृ 1 / 1 अनि
क
(अस) व 2 / 1 (परमत्थ) 2/1
श्रव्यय
(जारण) व 2 / 1 सक
( मूढ ) 1/1 वि
(स) व 2 / 1 ग्रक
(सयल) 1 / 1 वि
ग्रव्यय
(क) 1/1 सवि
(तडप्फड) व 3 / 1 ग्रक
यदि
चित्त
= करणो से
= ही
= रहित
= भूसा
= जिस प्रकार
= पूरी तरह से
= इकट्ठा किया गया
= बहुत
= हे विद्वान्, हे बुद्धिमान = हे ज्ञानी
= करणो (करण - समूह) को
= छोड़कर
= भूसा
= कूटा गया
= अर्थ मे
= ग्रन्थ मे
== सन्तुष्ट
==है
= परमार्थ को
नहीं
= जानता है
=
= मूढ
= है
सव
= ही
= कोई
= छटपटाता है (छटपटाते हैं)
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिद्धत्तरगड तरणरण सिद्धत्तण परि पावियह चित्तह1 णिम्मलएण
(सिद्धत्तण) 4/1
-सिद्धत्व के लिए (तण) 3/1
-शरीर से (सिद्धत्तण) 1/1
-सिद्धत्व अव्यय
=किन्तु (पाव-माविय) व कर्म 3/1 सक प्राप्त किया जाता है (चित्त) 6/2
-चित्त के (णिम्मलम) 3/1 'अ' स्वार्थिक =निर्मल होने से
50 प्ररि अव्यय
-अरे मरणकरह [(मण)-(करह) 8/1] =मनरूपी ऊंट
अव्यय (रइ)2/1
रमण करहि (कर) विधि 2/1 सक
-कर इदियविसयसुहेण [(इदिय)-(विसय)-(सुह)3/1] =इद्रिय-विषयो से (मिलने
वाले) सुख के कारण सुक्ख (सुक्ख) 1/1
-सुख गिरतर (रिगरतर) 1/1 वि
-निरंतर (ज) 3/2 स
-जिनके कारण अव्यय
-नहीं अव्यय
-पादपूरक मुच्चहि (मुच्चहि)विधि कर्म 2/1 सक अनि-छोड़ दिए जाने चाहिए
(त) 1/2 स
अव्यय खणण क्रिविन
-तुरन्त
जेहि
वि
51. तूसि
-प्रसन्न रह
(तूस) विधि 2/1 अक अव्यय (रूस) विधि 2/1 अक
रूसि
-नारान हो
___ यहा बहुवचन का एकवचनार्थ प्रयोग है (श्रीवास्तव अपभ्रश भामु का अध्ययन,
पृष्ठ, 151)।
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 51
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोहु
करि कोहें
रणासह
धम्म धम्मिा
(कोह) 2/1
-क्रोध (कर) विधि 2/1 सक (कोह) 3/1
-क्रोध के कारण (णास) व 3/1 अक
नष्ट हो जाती है (धम्म) 1/1
-शान्ति (धम्म-धम्मे→धम्मि) 3/1 =धर्म (णटुणटेंट्ठि ) भूक 3/I =नष्ट होने पर अनि (णरय)-(गइ) 1/1] =नरकगति अव्यय
=और (गम) भूकृ 1/1 अनि
व्यर्थ हुमा [(माणुस)-(जम्म) 1/1] मनुष्य जन्म
णरयगइ
प्रह
गउ
माणुसजम्मु
हत्य प्रहट्ट देवली वालहं रा
(हत्य) 6/1 (अहुटु) 1/1 वि दिवल(स्त्री)-→देवली 1/1] (वाल) 6/11 अव्यय अव्यय (पवेस) 11 (सत) 1/1 वि (रिगरजरण) 1/1 वि (त) 7/1 म (वस) व 3/1 प्रक (गिम्मल) 1/1 वि (हो+) सक (गवेस) विधि 2/1 सक
-हाय के -निकट स्थित -देवालय =अज्ञानी का
नहीं =किन्तु -प्रवेश शान्त
पवेसु
सतु বিণ
तहि
वसई रिगम्मलु होइ गवेसु
-उसमे
रहती है -निर्मल -होकर खोज
1
हम्वीकरण की प्रवृत्ति के कारण धम्मे-धम्मि, रण→→णादि हया है।
52 ]
( पाहृडदोहा चयनिका
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पापरहं
मेलयउ
मण मोडिवि सहस
सो
[(अप्प (स्त्री)→अप्पा) - (पर)-प्रात्मा और पर का 6/2 वि] अव्यय
नहीं (मेलय-अ) 1/1 'अ' स्वा । -मिलाप (मण)2/1
=मन को (मोड+इवि) सक
-मोडकर अव्यय
=शीघ्र अव्यय
-इस प्रकार (त) 1/1 सवि (वढ) 8/1 वि
-हे मूर्ख (जोइ-य) 1/1 'य' स्वार्थिक =योगी (क) 1/1 सवि
-क्या (कर) व 3/1 सक
करता है (करेगा) (ज) 6/1 स
=जिसके अव्यय
= नहीं [एत-एह (स्त्री)--एही] 1/1सवि-यह (मत्ति) 1/1
-शक्ति
वढ
जोइय
करह
जासु
एही
सत्ति
54. अन्तो
गस्थि सुईण कालो थोत्रो
-अन्त
नहीं है -शास्त्रो का -समय -थोडा
पेयं
(अन्त) 1/1 वि अव्यय (सुइ)6/2 (काल)1/1 (थोत्र) 1/1 वि (अम्ह) 1/2 स अव्यय (दुम्मेहा) 1/2 वि (त) 1/1 सवि अव्यय (सिक्ख) विधिकृ 1/1 (ज) 3/1 स
तुम्मेहा
=और =दुर्बुद्धि -वह -केवल =सीखा जाना चाहिए =जिससे
गवर सिक्खियन्वं
जि
[ 53
पाहुडदोहा चयनिका ]
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
-जरा-मरण को नष्ट
जरमरणक्खय [(जरा जर)-(मरण)
-(क्ख य) 2/1] कुणहि (कुण) विधि 2/1 सक
-करे
55 सहि
राहिं छहरसहि पहि रूवहि
चित्त,
नासु
(सव्व) 3/2 सवि (राय) 312 [(छह) वि-(रस) 3/2] (पच) 3/2 वि (रूव) 3/2 (चित्त) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (रज-रजिअ) भूक 1/1 (भुवणयल) 7/1 (त) 2/1 स (जोइ→य) 8/1 'य' स्वार्थिक (कर) विधि 2/1 सक (मित) 2/1
-प्रासक्तियो द्वारा
छ रसो द्वारा -पांच -रूपों द्वारा -चित्त =जिसका
नहीं =रंगा गया है -पृथ्वीतल पर -उसको -हे योगी
बना -मित्र
ण
रजिउ भुवणयलि
સો
नोइय करि
मित्त
56
देह गलतह
सव
गलइ
(देह) 6/2 (गल-गलत) व 612 (सव) 1/1 वि (गल) व 3/1 अक (मइ) 1/1 (सुइ) 1/1 (धारणा) 1/1
गलती हुई होने पर -सब कुछ
क्षीण हो जाता है -इन्द्रिय ज्ञान -शब्द ज्ञान -मन की स्थिरता
मह
धारण
1 समास मे ह्रस्व का दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है (हे प्रा व्या 1-4) | 2 अपभ्रंश मापा का अध्ययन, पृष्ठ 174 । 3 अपभ्रश मापा का अध्ययन, पृष्ठ 151 (कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर पष्ठी का
प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-134)।
541
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
वढ अवसरहि विरला सुमरहि
(घ)1/1
अव्यय तिह) 7/1 दि (वढ) 8/1 (अवसर) 7/1 (विरल) 1/2 वि (सुमर) व 3/2 सक (देन) 21
=ध्येय
तब -उस -हे मूर्ख =अवसर पर -बहुत थोडे -स्मरण कर पाते हैं -देव को (देव का)
उम्मणि थक्का जासु
मणु
भग्गा महि
(उम्मण) 7/1 (थक्क) भूक 1/1 अनि (ज) 6/1 स (मरण) 1/1 (भग्ग) भूक 1/1 अनि (भूव) 7/1 (चारु) 1/1 दि अव्यय (भाव) व 3/1 अक अव्यय (सचर) विधि 3/1 अक अध्यय अध्यय (मन) 1/1 (समार) 1/1 (सुक्ख+अड) 1/2 'अड' स्वा
-मात्मा में 3ठहरा -जिसका -मन -दूर हुआ -ससार से -अच्छा =जिस प्रकार -अच्छा लगता है -वैसा व्यवहार करे
चार जिम भाव तिम
संचर
दि
भउ ससार
-भी =भय -आसक्ति
S8 सुक्खाडा
=सुख
{ उम्मणि-मन के परे (प्रात्मा में), सं०-डॉ हीरालाल, पाहुडदोहा, दोहा __ स 104 1 2 कभी-कभी पंचमी के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा च्या 3-136)
पाहुडदोहा चयनिका 1
155
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिवहडइ
पुणु दुक्खह परिवाडि
हियडा
(दुइ) 2/2 वि (दिवह+अड) 7/1 'अड' स्वा =दिन तक अव्यय
-फिर (दुक्ख) 6/2
-दुखो को (परिवाडि) 1/1
=परम्परा (हिय+अड) 8/1'अड'स्वा. हे हृदय (अम्ह) 1/1 स (तुम्ह) 2/1 स
-तुझको (सिक्ख+अव) व प्रे 1/1 सक =सिखाता हूँ (चित्त) 2/1
-चित्त (कर) विधि 2/1 सक
लगा (काड) 7/1
-मार्ग पर
पड़
सिखवमि चित्त करिज्जहि वाडि
59 जेहा
पाणह अपडा तेहा पुत्तिए काउ
-जैसे -प्राणियो के लिए -झोपड़ा -वैसे ही
-अरे
काय -वहां
तित्यु
अव्यय (पारस) 4/2 (झुपडा) 1/1 अव्यय अव्यय (का )1/1 अव्यय अव्यय (रिणवस) व 3/1 अक (पणि वइ) 1/1 (त) 7/1 स (कर) विधि 2/1 सक (जोइय) 8/1 'य' स्वार्थिक (भा ) 2/1
णिवसइ पारिवह तहि करि
रहता है =प्राणपति -वहाँ ही लगा हे योगी
जोइय
भाउ
1 कमी-कमी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है
(हे. प्रा व्या 3-137) । 2 ममय-बोधक शब्दो मे सप्तमी होती है ।
56 ]
। पाहुडदोहा चयनिका
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
मूलु
2
छडि
जो
डाल
चडि
कह
तह
जोयाभासि
चीर
ण
वरणह
जाइ
चढ
बिणु
उट्टिय
इ कपासि
61. सववियप्पह [ ( सव्व) वि - ( वियप्प) 6 / 2] (तुट्ट) भूकृ 6 / 2 अनि
तुट्टह
(मूल) 2/1
(छड + इ) सकृ
(ज) 1 / 1 सवि
( डाल) 2/1
(ड) व 3 / 1 सक
श्रव्यय
कोलइ
अप्पु
परेल
श्रव्यय
[ ( जोय) + (आभास ) ]
[ ( जोय)
1 / 1 (प्रभास) विधि 2 / 1 सक ]
(चीर) 2/1
अव्यय
(TTT) 4/2
(जा) व 3 / 1 सक
(वढ) 8/1 वि
अव्यय
(उट्ट उट्टिय) भूकृ 2/1
अव्यय
(कप्पास कपासी) 2/1
चेयरणभावगयाह' [(चेयरण) - (भाव) - (गय) भूकृ 6/2 अनि
(कील) व 3 / 1 अक
(अप्प ) 1/1
(पर) 3/1
पाहुडदोहा चयनिका ]
= मूल को = छोडकर =जो
=डाल पर
= चढ़ता है
= कहाँ
= वहाँ
=
वस्त्र
= नहीं
= बुनने के लिए
योग, कह
= बुनता है।
= हे मूर्ख
== बिना
= श्रोटे हुए
=
- निश्चय ही
== कपास के
सब विकल्पो के
टूटा हुआ होने पर
== आत्मा के स्वभाव मे
पहुँचाना होनेपर
क्रीडा करता है।
व्यक्ति
= दूसरे के
=
यहाँ वर्तमान काल अन्यपुरुष एकवचन का प्रत्यय 'इ' मूल शब्द मे मिला दिया गया है । नया प्रयोग है ।
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है । (हे प्रा व्या 3-134)
1 57
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
62 अज्जु
देविणु
जित्यु
सिद्ध अव्यय
-साथ (रिणम्मलझाए- [(रिणम्मल) वि-(झारण)-(ठिय) =निर्मल ध्यान मे व्हरा(ठियाह भूक 6/2 अनि]
हुमा होने पर। अव्यय
-प्राज जिरिगन्ज (जिण+इज्ज) व कर्म 3/1 सक =जीता जाता है
(जीते जाते हैं) करहुलउ (करह+ उल+अ)1/1'उलअ'स्वा =ऊंट लइ (लग्र) सकृ
=ग्रहण करके पई (तुम्ह) 3/1 स
तेरे द्वारा (दा+एविणु) सक
-स्वीकार करके लक्खु (लक्ख) 2/1
=लक्ष्य को अव्यय
जहाँ चडेविणु (चड+एविणु) सक -आरूढ होकर परममुरिण
[(परम)वि-(मुणि) 1/1] =परम-मुनि सम्व (सव्व) 111 वि
=सभी गयागय (गयागय) 6/1
-गमनागमन से (मोक्ख) 2/1
=मुक्ति अप्पा (अप्प) 8/1
हे आत्मन् मिल्लिवि (मिल्ल+इवि) सकृ
-छोडकर एक्कु (एक्क) 2/1 वि पर (पर) 2/1 वि
पर को अण्ण (अण्ण) 1/1 वि
-अन्य अव्यय
=नहीं वरित (वइरिय) 1/I वि कोई (क) 1/1 सवि
=कोई भी जेण (ज) 3/1 म
=जिसके द्वारा
मोक्खु
शत्रु
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर पप्ठी का प्रयोग पाया जाता है । (हे प्रा व्या
3-134)। 2 कमी-कभी पचमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग किया जाता है (हे प्रा व्या
3-134)।
58 ]
[ पाहुटदोहा चयनिका
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरिणम्मिय
=निर्मित हुए
कम्मडा
(वि-रिणम्म वि-णिम्मिय) भूक 1/2 (कम्म+अड) 1/2'अड' स्वा (जइ) 1/1 (पर) 2/1 वि (फेड) व 3/1 सक (त) I/1 सवि अव्यय
फर्म यति =पर को -दूर हटाता है -वह
फेडह
अप्पहा
अव्यय
-यदि (वार) व 1/1 सक
-रोकता हूँ अव्यय
-तो अव्यय
-वहाँ अव्यय (पर) 2/1 वि
-पर को (अप्प) 6/2
-प्रात्मा को (मण) 2/1
मन को अव्यय
=नहीं (घर) व 3/1 मक
=धारण करता है (विसय) 6/2
=विषयो के (कारण--(स्त्री) कारणी) 1/1 =कारण (जीव+अड) 1/1'अड' स्वा. =जीव (णरय) 6/2
नरको के (दुक्ख)2/2
-दुखों को (सह) व 3/I सक
= सहन करता है
घरेइ
विसयह
कारणि जीवडर रगरयह
दुक्ख
सहेइ
65 जीव
(जीव) 8/1 अव्यय
-हे जीव =मत
। कभी-कमी द्वितीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या
3-134)।
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 59
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाणहि अप्परणा
विसया
-समझ -अपना -(इन्द्रिय)-विषय -होगे
होसहि म
फल
(जाण) विधि 2/1 सक अव्यय (विसय) 1/2 (हो) भवि 3/2 अक (अम्ह) 6/1 स (फल) 2/2 अव्यय (पाक) व 2/1 सक अव्यय (दुक्ख) 2/2 (कर) भवि 3/2 सक (तुम्ह) 4/1 स
पाकहि जेम तिम
=फलो को =क्यो ==पकाता है -जैसे-तैसे =दु खो को =पैदा करेंगे =तेरे लिए
दुक्ख
करेसहि ਰੂ
Thirutture dillu
विसया
सेवहि
=(इन्द्रिय)-विषयो का (को) ' =सेवन करता है =हे मनुष्य
जीव
दुक्खह साहिक एण तेरा पिरारिज पज्जलइ हुववहु
(विसय) 2/2 (सेव) व 2/1 सक (जीव) 811 (तुम्ह) 1/1 स (दुक्ख) 6/2 (साहिका) 1/1 वि (ए) 3/1 स अव्यय अव्यय (पज्जल) व 3/1 प्रक (हुववह) 1/1 अव्यय (घिन) 3/1
=दुखो का =साधक =इससे =इसलिए =निरन्तर =जलती है -अग्नि
जेम
घिएण
=घी से
67. जसु
(ज) 6/1 म
-जिसका
1
श्रीवास्तव, अपभ्रश नापा का अध्ययन, पृष्ठ, 1791
60 1
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवतहा मणु
मवर
पर्चेदियहा समाणु
सो
(जीव→जीवत) वकृ 6/1 जीते हुए (मरण) 1/1
मन (मुवन) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वा =मरा हुमा (पचेदिय) 6/2
-पचेन्द्रिय के अव्यय
-साथ (त) 1/1 सवि
-वह (जाण) व कर्म 3/1 सक समझा जाता है (मोक्कल-अ) 1/1 वि 'अ' स्वा =मुक्त (लद्धन) भूकृ 1/I अनि 'अ' स्वा =प्राप्त किया गया (पह) 1/1
-मार्ग (रिणव्वाण) 1/1
-शान्ति
जाणिज्ज मोक्कलउ लद्ध पह णिव्वाणु
68 कि
किज्जह
अक्खरह
-जो
कालि
(क) 1/1 सवि
क्या (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि=किया जाता है (बहु) 6/2 वि
-बहुत (अक्खर) 6/2
-शब्दो से (ज) 1/2 सवि (काल) 3/1
-समय में (ख) 2||
=विस्मरण को (जा) व 3/2 सक
=प्राप्त होते हैं अव्यय
जिससे (अणक्खर) 1/I वि
=अक्षररहित (सत) 1/1 (मुरिण) 1/1
-मुनि
जति जेम अणक्खरु सत मुरिण
कभी-कभी तृतीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है । (हे प्रा व्या 3-134)। समाणु के योग मे तृतीया होनी चाहिए। कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-137)।
[ 61
पाहुडदोहा चयनिका ]
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
तव 1
वढ
मोक्
कहत
69 छहदसरथ
बहुल
श्रवरुप्परु
गज्जति
ज
कारण
1
2
त
इक्क
पर
विवरेरा
जागति
वेय
वढ
वुज्झतह
णउ
भति
प्राणदेण
व
जान
गउ
(तव ) 6 / 1स अनि
(वढ ) 8 / 1 वि
(मोक्ख) 1/1
(कह) व 3/2 सक
70 सिद्धंतपुरार्णाह 2 [ (सिद्धत) - (पुराण) 7/2] (वेय) 1/2
(वढ) 8 / 1 वि
(बुज्फ वुज्झत) वकृ 4/2
अव्यय
(भति) 1 / 1
(STITUTE) 3/1
श्रव्यय
62 ]
(गज्ज) व 3 / 2 अक
(ज) 1 / 1 सवि
[ (छह ) वि - ( दसरण) - (गथ ) 3 / 1] = छहो दर्शनों की गाठ के कारण
(वहुल) 1/2 वि
क्रिविन
(कारण) 1/1
(त) 1 / 1 सवि
( इक्क) 1 / 1 वि
अव्यय
(विवरेर) 1 / 1 वि (जारण) व 3 / 2 सक
= तेरे लिए
= हे मूर्ख
= मोक्ष
= कहते हैं
श्रव्यय
(ग) भूरु 1 / 1 ग्रनि
=
- बहुत
= एक दूसरे के विरुद्ध
= गरजते हैं।
= जो
कारण
= वह
= एक
= किन्तु
= विपरीत
=
= समझते हैं।
= सिद्धान्त और पुर गो को
=वेद
= हे मूर्ख
= समझने हुए (व्यक्तियो ) के लिए
= नहीं
=== सन्देह
= श्रानन्द से
= श्रौर
= जव
=मरा
पी का प्रयोग चतुर्थी श्रर्थ मे होना है ।
कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर मनमी का प्रयोग पाया जाता है । हे प्रा व्या 3-135) 1
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
ཡོཊྛཱ ལླཾཟླསྶཝ
71. भिण्ड
जह
ग
जाणियउ
रियदेहह
परमत्यु
सो
अंधउ
अवरह
श्रधयह
किम
दरिसावइ
पथु
72 जोइय
भिण्टाउ
झाय
तुह
1
ते
अप्पाणु
जइ
दे
अव्यय
(वढ ) 8 / 1 वि (सिद्ध) 2 / 1 वि
(क) व 3 / 2 सक
( भिण्ण-अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक=भिन्न
(ज) 3/2 स
अव्यय
(जारण-जारिणय) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
[ ( यि ) - (देह) 6 / 1]
(परमत्थ) 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
(अ) 1 / 1 वि
(अवर) 4/2 वि
(अधय) 4 / 2 वि
अव्यय
( दरिसाव ) व 3 / 1 सक
(पथ) 2/1
( जोइ - य) 8 / 1 'य' स्वार्थिक
( भिण्ण) 2 / 1
( भाय) विधि 2 / 1 सक
(तुम्ह) 1 / 1 स
(देह) 6/1
( तुम्ह ) 6 / 1
(अप्पा) 2 / 1
अव्यय
(देह) 2/1
तब
= हे मूर्ख
= सिद्ध
= कहते हैं
वि 'अ' स्वार्थिक
पाहुडदोहा चयनिका ]
== जिसके द्वारा
= नहीं
=जाना गया
निज देह से
= परमार्थ
=== वह =अन्धा
= दूसरो के लिए == श्रधो के लिए
किस प्रकार
= दिखाता है
= मार्ग
हे योगी
भिन्न को
ध्यान कर
=तू
देह से
= तेरी
= श्रात्मा को
=यदि
= देह को
1 कभी-कभी पचमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या
3-134)
[ 63
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्पउ मुगहि
अव्यय (अप्पन) 1/I 'अ' स्वार्थिक (मुण) व 2/1 सक अव्यय अव्यय (पाव) व 2/1 सक (रिणवारण) 2/1
प्रात्मा =मानता है =नहीं -कभी =पाता है निर्वाण
वि पावहि रिपव्वाणु
73 रायवयलहिं
छहरसहि पहि रूवहिं
चितु
जासु
(राय)-(वयल्ल) 3/2] [(छह) वि-(रस) 3/2] (पच) 3/2 वि (रूव)3/2 (चित्त) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (रज-रजिअ) भूक 1/1 (मुवरणयल) 7/1 (त) 2/1 सवि (जोड-य) 8/1 'य' स्वार्थिक (कर) विधि 2/1 सक (मित्त) 2/1
-प्रासक्ति के कोलाहल द्वारा -छहो रसो के द्वारा =पाचो (रूपो) के द्वारा -रूपो के द्वारा =चित्त -जिसका =नहीं =रगा गया =पृथ्वीतल पर =उसको =हे योगी =(कर)बना -मित्र
रजिउ भवणयलि
सो
नोइय
करि मित्तु
74 तोडिवि
सयल वियप्पडा अप्पह मणु
(तोड+इवि) सकृ
तोडकर (मयल) 2/2 वि
=सब (को) (वियप्प-+अड) 2/2 'अह' स्वा =विकल्पो को (अप्प) 6/1
-आत्मा मे (मरण) 2/1
-मन को
। 2
श्रीवास्तव, अपभ्रण मापा का अध्ययन, पृष्ठ, 174 । कभी-कभी सप्तमी के रथान पर पी का प्रयोग पाया जाता है (है. प्रा व्या. 3-134)।
64 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
वि
परेहि
सोल
गिरतरु
तह
अव्यय (घर) विधि 2/1 सक (सोक्ख) 2/1 (रिणरतर) 2/1 वि अव्यय (लह) व 2/1 सक अव्यय (समार) 2/1 (तर) व 2/1 सक
धारण कर -सुख को =निरतर =वहां -पाता है (पायेगा) -शीघ्र =ससार को =पार करता है (करेगा)
लहहि लह ससार तरेहि
75 पुण्णेण
होइ विहस्रो विहवेरप मनो मएण महमोहो मइमोहेप
(पुण्ण) 3/1 (हो) व 3/1 अक (विहा) 1/1 (विहव) 3/1 (मन) 1/1 (मन) 3/1 [(मइ)-(मोह) 1/1] [(मइ)-(मोह) 3/1] अव्यय (णरय) 1/1 (त) 1/1 सवि (पुण्ण) 1/1 (अम्ह) 4/1 स अव्यय (हो) विधि 3/4 अक
-पुण्य से =होता है -वैभव =वैभव से -मद -मद से -बुद्धि की मूर्छा (मतिमोह) -बुद्धि की मूर्छा से -और -नरक
णरय
पुण्ण अम्ह
-पुण्य -मेरे लिए
मा
=होवे
नमस्कार किए हुए
76 एमिनो
सि ताम जिणवर जाम
(णम→गमित्र) भूकृ 1/1 (अस) व 2/1 अक अव्यय (जिणवर) 8/1 अव्यय
-तब तक =हे जिनेन्द्र -जब तक
राहुढदोहा चयनिका ।
[ 65
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
जई
अव्यय
= नहीं मुगिनो (मुण→मुरिणय) भूकृ 1/1 =समझे गये
(अस) व 2/1 अक देहमज्झम्मि [(देह)-(मज्म) 7/1] -देह के अन्दर, देह मे अव्यय
-यदि मुरिणउ (मुण→मुरिणय) भूक 1/1 =समझे गये अव्यय
तो केण (क) 3/1 स
=किसके द्वारा णवज्जए (एवज्जए) व कर्म 3/1 मक अनि = नमस्कार किया जाए कस्स (क) 4/1 स
-किसको
ता
77 ता अव्यय
-तब तक संकप्पवियप्पा [(मकप्प)-(वियप्प) 1/2] =सकल्प-विकल्प कम्म (कम्म) 2/1
-कर्म प्रफुरणतु (अकुरण→अकुणत) वकृ 1/I =न करते हुए सुहासुहाजरणय [(मुह) + (असुहा)+(जग्णय)=शुभ-अशुभ को उत्पन्न
[(सुह)-(असुह)-(जरणय) करनेवाला
2/1 वि अप्पसस्वासिद्धि [(अप्प)-(सम्वा)-(सिद्धि) 1/1]=प्रात्म-स्वरूप की सिद्धि जाम अव्यय
जब तक अव्यय
नहीं हियर (हियन)7/1
-हृदय में परिफुरद (परिफुर) व 3/1 अक स्फुरित होती है 78 अवघउ (अवधय) || '' स्वायिक अहिना अक्सर (अरपर) 1/1 वि
अव्यय उप्पज्जई (उप्पज्ज) व 3/1 अक =उत्पन्न होती है (अणु) 11 वि
-थोडा वि
अव्यय
ममाम में कभी-कभी ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है।
661
[ पाहुइदोहा चयनिका
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
किपि अण्णाउ
किज्ज प्राय चित्ति। लिहि मणु पारिवि सोउ णिचितिउ पाय पसारिवि
(क) 1/1 सवि
- कुछ (अण्णा ) 1/1 वि
अन्याय अव्यय
नहीं (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि =किया जाता है (आय) 2/2
-इन दोनो को (चित्त-चित्तेंचित्ति) 3/1 =चित्त मे (लिह) विधि 2/1 सक -लिख ले (मरण) 2/1
मन मे (धार+इवि) सक
-स्थिर करके (सोम) विधि 2/1 अक -सो (णिचिंता) 2/1 वि अ' स्वा =निश्चिन्त (होकर) (पाय) 2/2
=पांवों को (पसार+इवि) सक
-पसारकर
79 कि
बहुए प्रडवड वडिण
दह
(क) 1/1 सवि (बहु) 3/1 वि अव्यय (वडवडेण-वडिण) 3/1 (देह) 1/1 अव्यय (अप्प) I/1 (हो) व 3/1 अक (देह) 6/1 (भिण्ण) 1/1 वि 'अ' स्वा (णाणमअ) 1/1 वि
=क्या -बहुत =अटपट =कहने से -देह
नहीं -प्रात्मा -होती है = देह से = भिन्न -ज्ञानमय
अप्पा होइ
भिण्णउ रगाणमउ
1 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या
3-137)। 2 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या
3-137) । 3 अपभ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
पाहुडदोहा चयनिका ]
[ 67
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
(त) 1/1 सवि (तुम्ह) 1/1 स (अप्प) 1/1 (जोइ) 8/1
अप्पा
जोइ
-प्रात्मा =हे योगी
80 दयाविहीणउ
धम्मडा णाणिय कहवि
जोइ
बहुए
सिलिल. विरोलियइ
कर
चोप्पडा होइ
(दया)-(विहीण) भूकृ 1/1 =दया से रहित अनि 'अ' स्वार्थिक (धम्म+अड) 1/1 'अड' स्वा धर्म (णाणिय) 8/1 वि 'य' स्वा =हे ज्ञानी अव्यय
-किसी तरह भी अव्यय
=नहीं (जोइ) 8/1
=हे योगी (बहुअ) 3/1 वि
=बहुत [(सलिल)-(विरोल-विरोलिय =विलोडन किये हुए पानी से
→विरोलियम)भूकृ3/1 'अ' स्वा] (कर) 1/1
-हाथ (चोप्पड) 1/1 वि
-चिकना (हो) व 3/1 अक
=होता है (भल्ल) 6/2 वि
=भलो के अव्यय
=भी (पास) व 3/2 अक
= नष्ट हो जाते हैं (गुण) 1/2 अव्यय
=जहाँ अव्यय
=साथ (सग) 1/1
=सगति (खल) 3/2
=दुष्टो के (वडसागर) 1/1
=अग्नि (लोह) 6/1
=लोहे के साथ
81
भल्लाण
वि
णासति गुरण हिं
=गुण
सह
सगु
खलेहि
वइसागर लोहह
कमी-कमी तृतीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-134)। अपभ्रण मापा का अध्ययन, पृष्ठ, 151 ।
68 ]
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिलिउ पिट्टिज्जइ सुघहिं
(मिल-मिलिय) भूक 1/1 (पिट्ट) व कर्म 3/1 सक (सुघरण) 3/2
=मिली हुई -पोटी जाती है -हथौडो से
82 तित्या
तित्य भमेहि वढ
तीर्थों पर (को) तीर्थों पर (को) जाता है
पोयत
चम्म
जलेण
(तित्थ) 2/2 (तित्थ) 2/2 (भम) व 2/1 सक (वढ) 8/1 वि (घोयम) भूक 1/1 अनि (चम्म) 1/1 (जल) 3/1 (एम) 2/1 सवि (मण) 21 अव्यय (धोअ) व 2/1 मक (तुम्ह) 1/1 स (मइल-अ) 2/1 वि [(पाव)-(मल) 3/1]
-घोया हुआ -चमडा
जल से -इस (को) -मन को -किस प्रकार -धोयेगा
मणु
किम घोएसि
मइलउ पावमलेण
=मैले -पाप-मल से
83 जोइय
हियड
जासु
इक्कु रिगवसह
(जोइय) 8/1 'य' स्वार्थिक -हे योगी (हिय+अडम) 7/1 'अड' स्वा = हृदय में (ज)6/1 स
-जिसके अव्यय अव्यय
=पादपूरक (इक्क) 1/1 वि
-एक (शिवस) व 3/1 अक -निवास करती है (देन) 1/1
-दिव्य प्रात्मा (जम्मरण)-(मरण)
जन्म-मरण से रहित (विवज्ज-विवज्जियम) भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक] अव्यय
=किस प्रकार
[जम्मरणमरण- । विवज्जियउ
किम
पाहुडदोहा चयनिका ]
[
69
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाव परलोउ
(पाव) व 3/1 सक (परलोअ) 2/1
प्राप्त करता है (करेगा) श्रेष्ठ जीवन
84 जिम
लोण विलिज्जा पारिणयह तिम
जह चित्त विलिज्ज समरसि हूवइ नीवडा
अव्यय (लोण) 1/1 (विलिज्ज) व 3/1 अक (पारिणय) 6/1 अव्यय अव्यय (चित्त) 1/1 (विलिज्ज) व 3/1 अक (सम)-(रस) 7/1] (हव) व 3/1 अक (जीव+अड) 111 'अड' स्वा (काइ) 2/1 सवि (समाहि) 1/1 (कर-करिज्ज) व 3/1 सक
-जिस प्रकार
नमक -विलीन हो जाता है =पानी मे =उसी प्रकार = यदि
चित्त = लीन हो जाता है
समतारूपी रस मे -डूब जाता है
जीव -क्या -समाधि करती है
काइ
समाहि
करिज्ज
85 तित्थड
तित्य भमतयह
(तित्थ) 2/2 (तित्थ) 2/2 (भम→ममत) वकृ 6/2 'य' स्वा
तीर्थों मे -तीर्थों में
भ्रमण करते हुए (व्यक्तियों) को =दुखी की जाती है
सताविज्जड
दर
अप्प
(सताव) व कर्म 3/1 सक (देह) 11 (अप्प) 31 (अप्प) 1/2 (झाप) भूक 1/2
अप्पा झाइयइ
मात्मा के द्वारा प्रात्मा -ध्याया गया है
1 कनी-कमी मप्तमी के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या.
3-134) 2 ग्रादरमूच क शन्द ।
70 }
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
रिणवाण' पउ
(रिणवाण) 2/1 (पन) 2/1 (दा) विधि 2/1 सक
=निरिण मे -पैर, कदम -रख
86
मूढा
जोवह देवलई लोहिं जाइ कियाइ
(मुढ) 1/1 वि (जोव) व 3/1 सक (देवल) 1/2 (लोय) 3/2 (ज) 1/2 सवि (किय) भूक 1/2 अनि
-देखता है -देवालय लोगो के द्वारा
=किये गये (बनाये गये)
| 2/1
पिच्छह अप्परिणय
जहि
अव्यय
नहीं (पिच्छ) व 3/1 सक
-देखता है (अप्पण+इय)2/1 वि 'इय' स्वा =अपनी अव्यय
-जहाँ (सिम) 1/1
=परम प्रात्मा (सत) 1/1 वि
=शान्त (ठिय) भूकृ 1/2 अनि ठहरा हुआ
सिउ
सतु
ठियाइ
87 देहादेवलि
सिउ वसई तुह देवलइ
=देहरूपी मन्दिर मे =परम प्रात्मा =बसती है
(देह-देहा)-(देवल) 7/1] (सिम) 1/1 (वस) व 3/1 अक (तुम्ह) 1/1 स (देवल) 212 (रिणय) व 211 सक (हास) 1/1 'अ' स्वार्थिक (अम्ह) 6/1 स
णिएहि
-मन्दिरो को -देखता है -हंसी मेरे
हासउ महु
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा व्या 3-137)
{ 71
पाहुडदोहा चयनिका ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
88
मरिण
अत्यि
इहु
सिद्धे
भिक्ख
भहि
जिणवरु
झाहि
जीव
तुह
खोइ
दुक्ख
रण
देवहि
कहिमि
वढ
अजरामरु
(तुम्ह) 1 / 1 स
विसयकसायह? [ ( विसय) - ( कसाय) 6/2]
(खो + इ) सकृ
( दुक्ख ) 2/1
पड
होइ
89 इन्दियपसर
शिवारियइ
मरण
जाहि
( मरण) 7/1
श्रव्यय
(एएहुहु) 1 / 1 सवि (सिद्ध) 7/1
( भिक्ख) 4/1
(भम) व 2 / 1 सक
72 J
(जिरणवर) 2 / 1
(झाय) विधि 2 / 1 सक
(जीव ) 8 / 1
अव्यय
(ख) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(वढ ) 8 / 1 वि
[(जर) + (अमर)] [ ( जर ) - ( अमर ) 1 / 1 वि]
(पत्र) 1 / 1
(हो) व 3 / 1 प्रक
=मन में
=है
( मरण) 8/1
(जारण) विधि 2 / 1 मक
=यह
सिद्ध होने पर
= भीख के लिए
= घूमता है।
= जिनेन्द्र का (को)
= ध्यान कर
= हे जीव
=तू
== विषय कषायो को
= नष्ट करके
= दुख
= नहीं
-
- देखेगा (देख )
= कहीं भी
हे मूर्ख
==श्रजर-श्रमर
= पद
= होता है
[ ( इन्दिय ) - ( पमर) 1 / 1]
( रिणवार रिणवारिय) भूकृ 1/2 = रोके गये हैं
= हे मन
==समझ
= इन्द्रियो के प्रसार
} श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 1
2
कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर पष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (है. प्रा व्या 3-134) I
( पाहा चयनिका
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमत्थु
अप्पा
मिल्लवि
खारणमउ
अवरु
विडाविड
सत्य
90 विसया
चिति
म
जीव
तुह
विसय
रण
भल्ला
होति
सेवताह
वि
महुर
वढ
पच्छाइ
दुक्खइ
दिति
91 भवि
दसण
मलर हिउ
करउ
समाहि
(परमत्थ) 2/1
(अप्प ) 2/1
(मिल्ल + इवि) सकृ (गाणम) 2 / 1 वि (अवर) 1 / 1 वि
( विडाविड) 1 / 1 वि
(सत्य) 1/1
(विसय) 2/2
(चित) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(ita) 8/1
(तुम्ह) 1/1 स
(विसय) 1/2
अव्यय
(मल्ल) 1 / 1 वि
(हो) व 3 / 2 अक
(सेव सेवत) वकृ 4/2
अव्यय
(महुर) 1/2 वि
(वढ) 8 / 1 वि
अव्यय
(दुक्ख) 2/2
(दा) व 3/2 सक
(भव) 7/1
( दसरण) 1 / 1 [(मल)-(रहिन) भूकृ 1 / 1]
(कर) व 1 / 1 सक (समाहि) 4/1
पाहुडदोहा चयनिका ]
= परमार्थ
== श्रात्मा को
= छोडकर
=ज्ञानमय
==दूसरे
= अटपटे
=शास्त्र
= विषयो का ( को )
=
- चितन कर
-
मत
= हे जीव
=तू
= विषय
= नहीं
= अच्छे = होते हैं
=
= सेवन करते हुए (व्यक्तियो)
के लिए
-
= किन्तु
=मधुर
= हे मूर्ख
= पीछे
= दुखो को = देते हैं
=
= जन्म मे
==सम्यग्दर्शन
= मलरहित
= ( प्रयत्न) करू
= समाधि के लिए
=
[ 73
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
रिसि
(रिमि) 111
-ऋषि
गुरु
मह
(होम) व 3/1 अक
= रहे (होता है) (अम्ह) 6/1 स
=मेरे (रिणहयमणु- [णिहय)+(मण)+(उन्भव)+=मन से उत्पन्न व्याधि नष्ट (भववाहि (वाहि)] [(रिणहय) भूक अनि- कर दी गई
(मरण)-(उन्भव)-(वाहि) 1/1]
92 वेपयेहि
गम्मइ वेमुहसूई।
सिज्जए
कथा विषिण
(a) वि-(पथ) 3/2] -दो मार्गों से अव्यय
नहीं (गम्मइ) व कर्म 3/1 सक अनि =गमन किया जाता है
[(वे)वि-(मुह)-(सूई) 6/1] =दो मुखवाली सूई से (सिज्जए) व कर्म 3/1 सक अनि =सिया जाता है (कथा) 1/1
-पुराना वस्त्र (वि) 1/2 वि
-दोनो अव्यय (ह) व 3/2 अक
=होते हैं (अयारण) 8/1 वि
-हे अज्ञानी [(इदिय)-(सोक्ख) 1/1] =इन्द्रिय-सुख अव्यय
और (मोक्ख) 1/1
तनाव-रहितता
-नहीं
हुति प्रयाणा इदियसोक्ख
मोवख
।
कभी-कभी तृतीया के स्थान पर पप्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे प्रा व्या 3-134)।
741
। पाहुददोहा चयनिका
Page #99
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________________
संकेत-सूची
प्रक
अनि
-अव्यय (इसका अर्थ= लगाकर लिखा गया है) -अकर्मक क्रिया
-अनियमित प्राज्ञा -आज्ञा कर्म -कर्मवाच्य (क्रिवित्र) --क्रिया विशेषण अव्यय
(इसका अर्थ लगाकर लिखा गया है) -तुलनात्मक विशेषण -पुल्लिग -प्रेरणार्थक क्रिया - भविष्य कृदन्त - भविष्यत्काल -भाववाच्च --भूतकाल --भूतकालिक कृदन्त -वर्तमानकाल -वर्तमान कृदन्त
-विशेषण विधि -विधि विधिक
-विधिकृदन्त
- सर्वनाम सक -सम्बन्धक कृदन्त
-सकर्मक क्रिया
-सर्वनाम विशेषण स्त्री -स्त्रीलिंग हे -हेत्वर्थक कृदन्त
( ) -इस प्रकार के कोष्ठक
मे मूल शब्द रखा गया है। [( )+()+( ) ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+ चिह्न किन्ही शब्दो मे सधि का द्योतक है । यहाँ अन्दर के कोष्ठको मे दोहे के शब्द ही रख दिए गए है। [( )-( )-( ) ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है। [[( )-( )- ( ) वि] जहाँ समस्त पद विशेपण का कार्य करता है, वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। •जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल सस्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'सजा' है। 'जहां कर्मवाच्य, कृदन्त आदि अपभ्रश के नियमानुसार नही बने हैं वहाँ कोप्ठक के वाहर 'अनि' भी लिखा गया है ।
वि
६
1/1 अक
या
1/2 अक
या
सक-उत्तम पुरुप।
एकवचन सक-उत्तम पुरुष/
बहुवचन सक-मध्यम पुरुप/
एकवचन
2/1 अक
या
पाहुडदोहा चयनिका ]
[
75
Page #100
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________________
2/2 श्रक या
3/1 प्रक या
3/2 क या
सक
76 1
·
- मध्यम पुरुष /
बहुवचन
मक— ग्रन्थ पुरुष /
एकवचन
सक - अन्य पुरुष /
बहुवचन
1 / 1 - प्रथमा / एकवचन
1/2 - प्रथमा / बहुवचन
2 / 1 - द्वितीया / एकवचन
2 / 2 - द्वितीया / वहुवचन 3 / 1 - तृतीया / एकवचन
3/2 तृतीया / बहुवचन 41/- चतुर्थी / एकवचन 4 / 2 - चतुर्थी / बहुवचन
5/1 - पंचमी / एकवचन 5/2 - पचमी / बहुवचन 6/1 - पष्ठी / एकवचन
6/2 - षष्ठी / बहुवचन 7/1 - सप्तमी / एकवचन
712 - सप्तमी / बहुवचन 8/1— सबोधन / एकवचन 8 / 2 - सबोधन / वहुवचन
[ पाडदोहा चयनिका
Page #101
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पाहुडदोहा एवं चयनिका दोहा-क्रम
।
चयनिका पाहुडदोहा क्रम
क्रम
क्रम
चयनिका पाहुडदोहा | चयनिका पाहुडदोहा
__ क्रम । क्रम क्रम 1 1
24 37 25 40 26
46
47
84
8
85
44
27
28
48
93
-29
51
52
94
3054
53
95
10
31
54
98 101
55
58
38
40
39
11
15
64
32 57 10 13
56 103 11 17 34
57 104 12 18 35 6।
106 36
108 14 22 37 67
109 15 24
61 110 16 25
62 11 17 27 40 74
117 28
118 18 1929 4276
119
66 4377
120 20 30
44 33
123 78
68 45 22
124
125 2336 4682 पाहुडदोहा सपादक डॉ हीरालाल जैन, प्रकाशक गोपाल अम्वादास चवरे, कारजा जैन पब्लिकेशन सोसायटी, कारजा (वरार), वि स 1990
[ 77 पाहुडदोहा चयनिका ]
67
21
81
34
69
-
Page #102
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________________
-
चयनिका पाहुडदोहा
चयनिका पाहुडदोहा | चयनिका पाहुडदोहा
क्रम
क्रम
क्रम
क्रम
-
70
126
78
144
86
180
71
79
87
186
128 129
72
80
88
197
73
132
81
199
74
90
145 147 148 163 164 176 178
133 138 141
82 83
75
91
200 210 213
76
84
92
77
142
85
78 1
[ पाहुडदोहा चयनिका
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1 पाहुडदोहा
सहायक पुस्तकें एवं कोश
2 हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, भाग 1-2
3 प्राकृत भाषाओ का व्याकरण
4 अभिनव प्राकृत व्याकरण
5 प्राकृत मार्गोपदेशिका
6 प्रौढ रचनानुवाद कौमुदी
7 पाइन - सद्द - महणवो
8 अपभ्रंश - हिन्दी कोश, भाग 1-2
9 हेमचन्द्र - अपभ्रंश व्याकरण सूत्र विवेचन ( जैन विद्या के मुनि नयनन्दी एव कनकामर विशेषाक, सख्या 7, 8 ) 10 Apabhramsa of Hemchandra
पाहुडदोहा चयनिका ]
सम्पादक - डा हीरालाल जैन (अवादास चवरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला) कारजा (बरार )
व्याख्याता - श्री प्यारचन्द जी महाराज (श्री जैन दिवाकर - दिव्य ज्योति कार्यालय मेवाडी बाजार, ब्यावर ) ।
डॉ आर पिशल
(विहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना ) ।
डॉ नेमिचन्द शास्त्री
(तारा पब्लिकेशन, वाराणसी)
प बेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) डॉ कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी)
पं हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ ( प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी)
डॉ नरेशकुमार (इण्डो-विजन प्रालि
IIA, 220, नेहरू नगर, गाजियाबाद ) डॉ कमलचन्द सोगारणी
( जैन विद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, राजस्थान )
Dr Kantilal Baldevram Vyas (Prakrit Text Society, Ahmedabad)
[ 79
Page #104
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11 अपभ्रश भाषा का अध्ययन
12 वृहत् हिन्दी कोश
वीरेन्द्र श्रीवास्तव (एस चांद एण्ड क प्रा लि , नई दिल्ली) सम्पादक-कालिकाप्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वनारस) वामन शिवराम प्राप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) डॉ कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रश साहित्य अकादमी, जयपुर)
13 मस्कृत हिन्दी कोश
14 अपभ्रश रचना सौरम
801
[ पाहुडदोहा चयनिका
Page #105
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