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जिस (ज्ञान) के द्वारा आत्म-वोध उत्पन्न नही किया जाता है, उस तीन लोक को भी प्रकाशित करनेवाले ज्ञान से (व्यक्ति) बाहरी जानकार (तो) (हो जाता हैं) किन्तु वहाँ (उसका ) परिणाम ( इतना होने पर भी) घटिया ही । दिखाई देता है) 1
व्याख्यान देते हुए ज्ञानी ने यदि आत्मा मे चित्त नही दिया ( है ) ( तो ) ( यह बात ऐसे ही है ), जैसे पूरी तरह से करणो से रहित बहुत भूसा ही ( उसके द्वारा ) इकट्ठा किया गया ( है ) |
हे विद्वान् । हे बुद्धिमान । ( तेरे द्वारा ) भूसा कूटा गया ( है ) अर्थ मे सन्तुष्ट हैं । (तू) मूढ है,
हे ज्ञानी । करणो
(करण - समूह ) को छोडकर
| ( श्राश्चर्य) तू ) ग्रन्थ (शब्द) मे और ( क्योकि ) तू परमार्थ को नही जानता है ।
सब ही कोई शरीर से सिद्धत्व (आध्यात्मिक शान्ति) के लिए छटपटाते हैं । किन्तु ( सच तो यह है कि ) चित्त के निर्मल होने से सिद्धत्व प्राप्त किया जाता है ।
अरे मनरूपी ऊँट | इन्द्रिय-विपयो से ( मिलनेवाले) सुख के कारण (तू) ( उनमे ) रमरण मत कर। जिनके कारण निरन्तर सुख नही है, वे तुरन्त ही छोड दिए जाने चाहिए ।
(तू) प्रसन्न रह । नाराज मत (हो) । क्रोध मत कर । क्रोध के कारण शान्ति नष्ट हो जाती है । शान्ति के नष्ट होने पर नरक गति ( मिलती ) है । और ( इस कारण से ) ( व्यक्तियो का ) मनुष्य जन्म ( ही ) व्यर्थ हुआ है ।
हाथ के निकट देवालय स्थित ( है ), किन्तु अज्ञानी का ( उसमे ) प्रवेश नही (होता) है । उस ( देवालय ) मे शान्त और शुद्ध आत्मा रहती है । (तू) निर्मल होकर खोज ।
पाहुडदोहा चयनिका ]
आत्मा और पर का मिलाप ( कभी ) नही ( होता है) । (तू) मन को शीघ्र मोडकर इस प्रकार ( समझ ) । हे मूर्ख । वह योगो क्या करेगा जिसके (पास) यह शक्ति नही है ।
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