________________
ज्ञानात्मक स्वरूप है, अजर-अमर है ( 17 से 23 ) । जिसके द्वारा श्रात्मा निज देह से भिन्न नही जाना गया है वह अघा है, वह किस प्रकार दूसरे अधो को मार्ग दिखलायेगा ( 71 ) । बहुत अटपट कहने से क्या लाभ है ? देह आत्मा नही है, हे योगी ! देह से भिन्न ज्ञानमय आत्मा है, वह तू है (79) । जिसके हृदय मे जन्म मरण से रहित दिव्य श्रात्मा निवास नही करती है, वह किस प्रकार श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करेगा (83) ? तू चाहे शरीर का उपलेपन कर, चाहे घी, तेल भादि लगा. चाहे सुमधुर प्रहार उसको खिला और चाहे उसके लिए और भी नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर किन्तु देह के लिए किया गया उपकार सव ही व्यर्थ हुआ है, जिस प्रकार दुर्जन के प्रति किया गया उपकार व्यर्थ जाता है ( 12 ) । जैसे प्राणियो के लिए झोपडा होता है वैसे ही जीव के लिए काय होती है, वहाँ ही प्राणपति आत्मा रहता है, उसमे ही मन लगा ।
इसलिए हे योगी ।
शान्ति-साधना की भूमिका
शान्ति की साधना के लिए आसक्तियों के घेरे से बाहर निकलना श्रावश्यक है । 1 इसके लिए सर्वप्रथम लक्ष्य के प्रति दृढता अनिवार्य है (62) | पाहुडदोहा इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि लक्ष्य के प्रति यद्यपि मन को रोका जाता है, पर वह आदत के वशीभूत होने के कारण आत्मा की धारणा न करके 'पर' की ओर चला जाता है ( 64 ) । अत लक्ष्य के प्रति समर्पण अति प्रावश्यक है जिससे मन धीरे-धीरे 'पर' की ओर जाने की अपनी कुटेव को छोड़ दे । 2. लक्ष्य के प्रति दृढता के साथ साधक कुसंगति का त्याग करदे । सगति का व्यक्ति के विचारो, भावनाओ और चारित्र पर अत्यधिक प्रभाव पडता है । कुसगति से खोटी आसक्तिया पनपती है । व्यक्ति इनके कारण व्यसनो मे, दुराचरण मे लग जाता है और अच्छे विचारो से दूर होता चला जाता है । पाहुडदोहा का यह विश्वास उचिन प्रतीत हाता है कि यदि भले लोग भी दुराचारियो की संगति करते है तो उनके गुरण भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाते है (81) । इसका कारण यह मालूम होता है साथ रहता है उनके साथ तादात्म्य करता चलता है और इससे उनके गुण-दोष ग्रहण कर लेता है । ग्रत व्यमनी, दुराचारी व दुष्ट लोगो की
कि व्यक्ति जिनके
[ पाहुडदोहा चयनिका
VI }